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तुलसी शब्द-कोश
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सेवकपाल : सेवकों (भक्तों) के रक्षक । रा०प्र० ५.४.४ सेवकसेव्यमाव : परमेश्वर को सेव्य (आराध्य स्वामी) तथा अपने को सेवक मान
कर किया जाने वाला भक्तिभाव; स्वस्वामिभाव सम्बन्ध । मा० ७.११६ रामानुज, मध्य आदि वैष्णव मतों उपासना की यह पद्धति सम्मत है । रामानन्द ने 'कैकर्य' को सर्वोपरि महत्त्व दिया है और वल्लभ तो दास्य को ही मुक्ति
मानते हैं क्योंकि जीव का वही सहज स्वरूप है। सेवकहि : सेवक में, को "। 'प्रभुहि सेवकहि समरु कस ।' मा० १.२८१ को साहेबु
सेवकहि नेवाजी..।' मा० २.२६६.५ सेवकाई : सेवकाई में, सेवक भाव से । सेवकु लहइ स्वामि सेवकाई।' मा० २.६.८ सेवकाई : सं०स्त्री० । सेवक भाव, सेवा कर्म । मा० ७.१६.४ सेवकिनी : सेवक+स्त्री० (सं० सेविका) । परिचारिका । मा० ७.२४.५ सेवको : सेवकिनी । पा०म०/० १५ सेवक : सेवक+कए । 'सेवकु लहइ स्वामि सेवकाई ।' मा० २.६.८ सेवत : वकृ० । सेवा करता-ते । “पद पंकज से वत सुद्ध हिएँ ।' मा० ७.१४.५ सेवा ___ करते हुए को। 'सेवत सुलभ सुखद सब काहू ।' मा० १.३२.११ सेवति : वक०स्त्री० । सेवा करती। मा० ७.२४.४ सेवहिं : (१) आप्रब० । सेवा करते हैं, उपासते हैं । 'सेवहिं सानुकल सब भाई ।'
मा० ७.२५.१ (२) सेवा करेंगे। 'सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि
कन्या जाही।' मा० १.१३१.४ मेवहि : आ०मए० । तू सेवा कर । 'महेसहि सेवहि ।' पामं० २४ सेवह : आ०मब० । सेवा करो। 'सेवहु जाइ कृपा आगारा।' मा० ७.१६६ सेवा : (१) सेवा में। 'पुनि तें मम सेवा मन दयऊ ।' मा० ७.१०६.६ (२) सेवा
से । 'तोषे राम सखा की सेवा ।' मा० २.२२१.३ सेवा : (१) भूक०० (सं० सेवित>प्रा० सेविअ) । सेवन किया। 'साधु समाजु
सदा तुम्ह सेवा ।' मा० २.१५०.४ (२) सं०स्त्री० (सं.)। उपासना । 'करहि रघुनायक सेवा ।' मा० १.३४.७ (३) परिचर्या । 'करइ सदा नप सब के
सेवा ।' मा० १.५५.४ (४) नवधा भक्ति में मूर्ति की सपर्या ।' मा० ७.१६.८ सेवार : सं०पू० (सं० शैवाल>प्रा० सेवाल)। जलाशय में फैलने वाला तृण
विशेष । मा० १.३८.४ सेवित : भूकृ०वि० (सं.)। सेवा किया हुआ, पूजित, परिचरित । मा०
६.१११.२१ सेवौं : सेवउँ । (१) सेवा करता हूं। 'देवसरि सेवौं ।' कवि० ७.१६५ (२) सेवा
करूं । 'सेवौं अवध अवधि भरि जाई ।' मा० २.३१३.८
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