Book Title: Tulsi Shabda Kosh Part 02
Author(s): Bacchulal Avasthi
Publisher: Books and Books
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तुलसी शब्द-कोश
1139
हए : क्रि०वि० (हरुअ का रूपान्तर) । हलके से (धीरे) । 'लखन पुकारि राम
हरुए कहि ।' गी० ३.६.१ हरे : (१) हरि+सम्बोधन (सं०) । हे हरि । मा० ७.१३ छं २ (२) वि.पु.ब०
(सं० हरित>प्रा. हरिम)। हरे रंग के (हरिअर) । 'मानों हरे तृन चारु चरें ।' कवि० ७.४४ (३) भूक पु०ब० । दूर किये । 'पाप हरे परिताप हरे।' कवि० ७.५८ (४) अपने अधीन कर लिये । 'सबके मन मनसिज हरे ।' मा०
१.८५ (५) हरने से, हटाने पर । 'हरे बनिहि प्रभु तोरे ।' विन० ११६.५ हरेउ, ऊ : भूक००कए । हर लिया, निरस्त किया। 'दीनदयाल सकल दुख
हरेऊ ।' मा० ७.८३.४ हरें : हरिहिं । हरते हैं। 'लोचन कंज की मंजुलताई हरै।' कवि० १.३ हर : हरह। (१) हरता है। 'बुद्धि बल बर बस्त हरै।' जा०म० छं० १
(२) हरण करे, हर सकता है । 'रघुनाथ बिना दुख कौन हरै ।' कवि० ७.५५
'बिकार श्री रघुबर हरै ।' मा० ७.१३० छं० २ हरैया : वि०पु० (सं० हतका) । हरणकर्ता। 'भूमि के हरैया उखरैया भूमि धरनि
के।' गी० १.८५.३ हरो: (१) हर्यो। छीन लिया। 'बचन बिराग-बेष जगतु हरो सो है।' कवि०
७.८४ (२) वि००कए० (सं० हरित:>प्रा. हरिओ) । हरा । 'सूझत रंग
हरो।' विन० २२६.२ हरौं : हरउँ। (१) हरता हूं, छीनता, (चुराता) है । 'पर बित जेहि तेहि जुगुति
हरौं ।' विन० १४१.५ (२) हर लूं, उखाड़ फेंकू । 'बीस भुजा दस सीस हरौं।'
कवि० ६.१३ हर्ता : वि०पू० (सं०) । हरणकर्ता । हर्यो : हरेउ । हर लिया । 'मन हर्यो मूरति साँवरी ।' जा०० छं० १८ हर्ष : संपु (सं०) । पुलक, प्रसन्नता । मा० १.१६० हलक : सं०० (सं० हृदय>प्रा०हडक्क-अरबी-हलक= गला) । मन । 'समर ___समर्थ नाथ हेरिए हलक में ।' कवि० ६.२५ हलधर : सं०० (सं०) । कृष्ण के अग्रज =बलराम । मा० १.२०.८ हलबल : सं०० (अनुकरणात्मक)। हड़बड़ी, हड़कम्प, हलचल । 'गाज्यो सुनि
कुरुराज दल हल बल भो।' हनु० ५ हलराइ : पूकृ० । हिला-झुलाकर । 'गाइ गाइ हल राइ बोलिहौं।' गी० १.१६.४ हलराइहौं : आ० भ० उए । हिलाऊँ-झुलाऊँगी। गी० १.२१.३ हलरावति : वकृ०स्त्री० । हिलाती-झलाती। 'बाल केलि गावति हल रावति ।' गी०
१.७.२
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