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तुलसी शब्द-कोश
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सोषिहैं : आ०भ० प्रब० । सोख लेंगे, सुखा डालेंगे। 'राघो बान एकहीं समुद्र सातौ
सोषिहैं।' कवि० ६.२ सोपेउ : भूक०पु०कए । सुखा डाला। 'सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी ।' मा०
६.१.२ सौर्षों : आ० उए । सुखा डालू, सोख लू । सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ।' मा०
५.५८.१ सोसि : (सं० सोसिसः असि) । तू वह है। 'जोसि सोसि तव चरन नमामी।'
मा० १.१६१.५ सोसु : (समासान्त में) वि०पु०कए० (सं० शोषः, शोषम् >प्रा० सोसो, सोसं>
अ० शोसु) । सोषक, सुखा डालने वाला । 'नाम कुंभज सोच-सागर-सोस् ।'
विन० १५६.४ 'सोह, सोहइ, ई : आ०प्रए० (सं० शोभते>प्रा० सोहइ)। सुशोभित होता है,
शोभा पाता है । 'सोह न राम पेम बिन ग्यान् ।' मा० २.२७७.५ 'ताहि कि सोहइ ऐसि लराई ।' मा० ६.६६.२ 'मध्य दिवस जनु ससि सोहई ।' मा०
६.३५.४ सोहत : वकृ०० । सुशोभित होता-होते । मा० २.१४१ सोहति : वकृ०स्त्री० । सुशोभित होती। 'उभय बीच सिय सोहति कैसें ।' मा०
२.१२३.२ सोहमस्मि : यह वैदिक महावाव्य है जिसकी अद्वैतपरक व्याख्या है :-स:=ब्रह्म,
अहम् = जीव, अस्मि = हूं=में ब्रह्म हूं । अर्थात् जीव ब्रह्म ही है। विशिष्टा द्वैत की व्याख्या कुछ भिन्न है :-जीव अंश होने से अंशी ब्रह्म का अङ्गरूप है अत: वह ब्रह्म से अभिन्न है-पृथक् उसकी सत्ता ही नहीं। जीव जब इसी प्रतीति को सिद्ध कर लेता है तो चित्तवत्ति अखण्ड (अविच्छिन्न) रूप में एकाकारता (अखण्डरूपता) अनुभव करती है। यही अखण्डवृत्ति है । 'सोहमस्मि इति बृत्ति
अखंडा।' मा० ७.११८.१ सोहर : शोर (?)। कोलाहल । 'लखि लौकिक गति संभु जानि बड़ सोहार ।
भए सुंदर सत कोटि मनोज मनोहर ।' पा.मं० १११ (यहाँ 'शोहरा' या _ 'शोहरत' से तात्पर्य है जिसका ‘ख्याति' अर्थ होता है)। सोहहि, हीं : आ.प्रब० (अ०) । सुशोभित होते हैं । मा० ६.६५.७, ७.२६ छं० सोहा : (१) भूकृ०० (सं० शोभित >प्रा० सोहिअ)। सुशोभित हुआ। मा० __७.५६.१० (२) सोहइ । 'राम नाम बिन गिरा न सोहा ।' मा० ५.२३.३ सोहाइ, ई : (१) सुहाई । रुचता है, रुचता हो । 'नीति बिरोध सोहाइ न मोही।'
मा० ७.१०७.३ 'सुन हु करहु जो तुम्हहि सोहाई ।' मा० ७.४३.४ (२) सोहइ । 'चंपक हरवा अंग मिलि अधिक सोहाइ।' बर० १२
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