Book Title: Tulsi Shabda Kosh Part 02
Author(s): Bacchulal Avasthi
Publisher: Books and Books
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तुलसी शब्द-कोश
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सोहाहि, हीं : आ०प्रब०। (१) रुचते हैं, रुचती हैं। 'जाहि न रघुपति कथा
सोहाहीं।' मा० ७.५३.५ (२) शोभित होते हैं । 'मंगल सकल सोहाहिं न
कैसें ।' मा० २.३७.७ सोहिले : सं०+वि०० (सं० शोभावत् >प्रा० सोहिल्ल) । (१) सुन्दर, शोभा
सम्पन्न, माङ्गलिक (२) मङ्गल गीत, जन्मोत्सव गीत (सोहर)। 'भयो सोहिलो
सोहिले भो जन सृष्टि सोहिले सानी।' गी० १.४.७ सोहिलो : सं०+वि.पु.कए । सोहर गीत, बधाई गीत । गी० १.२.१-४ सोहिहै : आ०म०प्रए। सुशोभित होगा, फबेगा। 'को सोहिहै और को लायक ।'
गी० १.७०.८ सोही : सोही+ब० । सुशोभित हुई। मा० २.१२१.१ सोही : भूक०स्त्री० । सुशोभित हुई। 'प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही।' मा०
सोहे : भूकृपु०व० (सं० शोभित>प्रा० सोहिय) । सुशोभित हुए । 'रेख कुलिस
ध्वज अंकुस सोहे ।' मा० १.१६६.३ सोहैं : सोहहिं । 'लीन्हें जयमाल कर कंज सोहैं जानकी के ।' कवि० १.१३ सोहै : सोहइ । (१) शोभा दे रहा है । 'आगें सोहै सांवरो कुवँरु ।' कवि० २.१५
(२) शोभा पा सकता है । 'दीप सहाय कि दिनकर सोहै ।' मा० २.२८५.५
(३) रुचता है, रुचे । 'कौन कृपालुहि सोहै ।' विन० २३०.२ सौं : सौह । 'सुनु मैया तेरी सौं करौं ।' कृ०८ सौंघाई : सं०स्त्री. (सं० समर्घता)। बाजार भाव की मन्दी (महंगाई का विलोम)।
"एक कहहिं ऐसिहु सौंधाई । सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई ।' मा० ६.८८.३ (यहाँ
वस्तु की प्रचुरता का भी तात्पर्य है)। सौंधे : वि०पू०ब० (सं० समर्घ>प्रा० समग्घ>अ० सर्वग्घ) । सस्ते, मन्दे, अल्प
मूल्य से प्राप्य । 'महंगे मनि कंचन किए सोंघे जग जल नाज ।' दो० १४६ सौंज : सं०स्त्री० । घरेलू सामग्री (बर्तन-भाडे आदि) । 'एक कर धौंज, एक कहैं काढ़ी
सौंज।' कवि० ५.१८ सौंपि : समपि (अ० सर्वधि) । समाति कर । मा० ६.६ सौंपिए, ये : आ०कवा०ए०। सौंपा जाय, दीजिए । 'यह अधिकार सौंपिये
औरहि ।' विन० ५.४ सौंपी : भूकृ स्त्री० । समर्पित की, भार संभालने की व्यवस्था दी। ‘सौंपी सकल
मातु सेवकाई ।' मा० २.३२३.२ सौंपु : आo-आज्ञा-मए० (सं० समर्पय>प्रा० समप्प>अ० सर्वप्पु) । तू समर्पित
कर दे । 'अजहुँ एहि भांति ले सौंपु सीता ।' कवि० ६.१७ सौंपे : भूकृ००ब० । समर्पित किये। सौंपे भूप रिषिहि सुत ।' मा० १.२०८
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