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तुलसो शब्द-कोश
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स्वतंत्र : वि० (सं.)। स्ववश, स्वाधीन, अन्यापेक्षारहित । 'सदा स्वतंत्र एक
भगवाना।' मा० ६.७३.१२ स्वदक : वि० (सं० स्वदृक्) । स्वयं द्रष्टा, आत्म द्रष्टा, स्वयं ही सब कुछ देखने
वाला, सर्वज्ञ=परमात्मा । विन० ५७.४ स्वधामद : अपना धाम (विष्णु लोक आदि) देने वाला। मा० ३.४ छं० स्वपच : सं०पू० (सं० श्वपच) । कुत्ते का मांस पकाने (खाने वाला) चाण्डाल ।
मा० ७.१००.५ स्वपचादि : स्वपच आदि अधम जाति वाले । मा० ७.१३० छं० १ स्वपच्छ : सं०० (सं० स्वपक्ष)। (१) अपना मतवाद । (२) अपना पंख । 'सठ
स्वपच्छ तव हृदये बिसाला । सपदि होहि पच्छी चंडाला ।' मा० ७.११२.१५ स्वप्रान : अपने प्रान (जीवन) । मा० ५.३०.८ स्वबस : वि० (सं० स्ववश) । (१) आत्माधीन, स्वाधीन, स्वतन्त्र (जिसे बाहर से
किसी की अपेक्षा न हो; माया पराधीन न होकर स्वेच्छा से सब कुछ कर सकता हो); सर्वथा आत्मस्थ । 'स्वबस अनंत एक अबिकारी ।' मा० ६.७३.११ (२) अपने अधीन, अपने वश में। 'कीन्हे स्वबस सकल नर नारी ।' मा०
१.२२६.५ स्वभक्त : अपना भक्त । मा० ३.४ छं. स्वमति : अपनी बुद्धि । मा० १.१२१.४ स्वयं : अव्यय (सं०) । स्वतः । मा० ६.१०४ छं० स्वयंबर : सं०० (सं० स्वयंवर) । कन्या द्वारा स्वयं ही वर चुनने की प्रथा; उसका
अवसर; वर चयन हेतु सभा । मा० १.४१.१ स्वयंवरु : स्वयंबर+कए । 'सीय स्वयंबर देखिअ जाई ।' मा० १.२४०.१ स्वयंसिद्ध : वि० (सं.)। अनायास सफल ; बिना प्रयास के ही अपने आप पूर्ण ।
'स्वयंसिद्ध सब काज ।' मा० ६.१७ स्वर : सं०० (सं.)। (१) कण्ठध्वनि, नाद । 'गदगद स्वर ।' मा० ७.१०७
(२) संगीत के स्वर= षड्ज, ऋषभ , गान्धार, मध्यम, और पञ्चम, धैवत और निषाद । इनके तीन भेद-मन्द्र, मध्य और तार । इनकी तीन गतियाँद्रुत, विलम्बित और मध्य लय । इन सबकी योजन से गीत में आरोह
अवरोह बनते हैं । 'गारी मधुर स्वर देहिं ।' मा० १.६६ छं० स्वरूप : सं०० (सं.)। (१) एकरूप, तदात्म, तद्रूप, अभिन्न । 'विभुं व्यापक
ब्रह्म-वेदस्वरूपं ।' मा० ७.१०८.१ (२) आत्मा का रूप, आत्मतत्त्व । 'कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें ।' मा० ७.११२.३ (३) यथार्थ परिचय । 'राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ।' मा० १.१२०.२
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