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तुलसी शब्द-कोश
करता और इस प्रकार अंशांशिभाव का भेद रहते भी अभेद पा जाता हैजैसा कि अङ्गका अङ्गी से भेदाभेद रहता है । मा० ६.३.२
साजू : (१) साजु । बनाव, शृङ्गार आदि । 'सजहि सुलोचन मंगल साजू ।' मा० २.२७.३ (२) आ० - आज्ञा - मए० । तू सुसज्जित कर, शृङ्गार सजा । 'रिस परिहरि अब मंगल साजू । मा० २.३२.३
साजें : क्रि०वि० । सुसज्जित किए हुए ( स्थिति में ) । 'नव सप्त साजें सुंदरी सब ।'
मा० १.३२२ छं०
साजे : भूकृ०पु०ब० । सुसज्जित किये बनाये । 'करि मज्जन प्रभु भूषन साजे ।'
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मा० ७.११.८
सार्ज : सर्जे, सजइ । सजाता है । गी० ७.१२.२
साटक : (१) सं०पु० (सं० शाटक) । परिधान, वेषविन्यास । (२) (सं०
साटक-- साट् दर्शने ) । प्रदर्शन, प्रदर्शनी दिखाव । (३) (सं० सट्टक) एक प्रकार का क्षुद्र पात्रों का नाट्य, ग्राम्य नाट्य । 'सब फोटक साटक है तुलसी अपनो न कछू सपनो दिन है ।' कवि० ७.४१
साटि : पूकृ० (सं० शट अवसादने ) । कष्ट उठाकर । 'बार कोटि सिर काटि साटि लटि रावन संकर पै लई ।' गी० ५.३८.३
साढ़ेसाती : (१) सं०पु० + स्त्री० (सं० सार्धसप्तिक > प्रा० सड्ढसत्तिअ ) । बारहवें, राशिस्थान तथा द्वितीय स्थान को मिलाकर साढ़े सात वर्ष की शनैश्चर की स्थिति जिसमें स्थान परिवर्तन, उच्चाटन आदि कष्ट होते हैं । 'समय साढ़ेसाती सरिस नृपहि प्रजहि प्रतिकूल ।' रा०प्र० ३.२.४ ( २ ) साढ़ेसाती शनितुल्य उच्छेद, उच्चाटन आदि संकट लाने वाली - ' अवध साढ़साती तब बोली ।'
मा० २.१७.४
साढ़ी : सं ० स्त्री ० । (दूध के ऊपर जमने वाली ) मलाई । गी० ५.३७.२ सात : सप्त (प्रा० सत्त) । संख्याविशेष | मा० ७.११४.१०
सातक : (सात + एक ) लगभग सात । 'साथ किरात छसातक दीन्हे ।' मा०
२.२७२.८
सातवें : वि०पुं० (सं० सप्तम > प्रा० सत्तम > अ० सत्तवं ) । सातवाँ । मा०
३.३६.२
सातहजान : (सं० सप्त + हय + यान ) सात घोड़ों वाहन वाला = सूर्य ( सूर्य को 'सप्ताश्व' तथा 'सप्त-सप्ति' कहा जाता है, इसी आधार पर शब्द गढ़ा गया है ) । 'छली न होइ स्वामि सनमुख ज्यों तिमिर सात- हय जान सों ।' गी० ५.३३.२
साता : सात | मा० २.२८०.८
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