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तुलसी शब्द-कोश
साप, पा: सं० स्त्री० + पुं० (सं० शाप – पुं० ) । भावी अनिष्टकारी वचनविशेष !
मा० ७.१०७ क; १०६.३
सापत: वकृ०पु० (सं० शपत् > प्रा० सप्पंत ) । शाप देता हुआ । 'सापत ताड़त परुष कहंता । मा० ३.३४.१
सापे : शाप दिये जाने पर । 'सापे पाप, नये निदरत खल ।' गी० १.४७.२
साबर : ( १ ) वि० (सं० शाबर ) । शबर जाति सम्बन्धी, जंगली, अशिष्ट । ( २ ) शाबरी विद्या जो जंगली जाति में प्रचलित मन्त्रों वाली होती है ।
साबर मंत्र : शाबरी विद्या के मन्त्र ( जिनकी रचना शबर वेषधारी शिव ने की थी, ऐसा प्रचलित है । इन मन्त्रों की भाषा बेतुकी होती है ।) मा० १.१५.१ साम : सं०पु० (सं० सामन्) । (१) राजनीति के चार उपायों में प्रथम । प्रतिपक्षी को वाचिक सान्त्वना आदि से अनुकूल करने का उपाय । 'साम दान भय भेद देखावा ।' मा० ५.६.३ (२) द्वितीय वेद, वैदिक संहिताविशेष । 'धीर मुनि गिरा गंभीर सामगान की ।' गी० २.४४. १ ( सामवेद के मन्त्रों को भी 'साम' कहा जाता है) । ( ३ ) सान्त्वना । 'नाम कलि कामतरु सामशाली ।' विन० ४४.१
सामध : सं०पु० । समाधियों का परस्पर स्नेहाचार आदि । 'सामध देखि देव अनुरागे । मा० १.३२०.४
सामरथ : सं०पु ं० (सं० सामर्थ्य ) । शक्ति, क्षमता । 'यह सामरथ अछत मोहि
त्यागहु ।' विन० ६४.५
सामादिक : राजनीति के चार उपाय:- साम, दान, भेद और दण्ड । दो० ५०६ सामु : साम + कए० । एकमात्र सामनीति, अनुकूल बनाने का उपाय । 'राम सों सामु किए हितु है ।' कवि० ६.२८
सामुभि: समुझि । समझ, विवेक बुद्धि । 'प्रभु पद प्रीति न सामुझि नोकी ।' मा० १.६.५
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सामहें : क्रि०वि० (सं० सम्मुखे, संमुखेन > प्रा० संमुहे > अ० संमुहें ) । सामने, अनुकूल होकर आगे । 'तेउ सुनि सरन सामुहें आए । मा० २.२६६.३ साहो : वि० ०कए० (सं० संमुखः > प्रा० संमुही ) | सामने स्थित । 'तुलसी स्वारथ सामुहो ।' दो० ४८१
साम : साम ही, सामनीतिमात्र (दान, भेद और दण्ड नीतियाँ नहीं ) । इहाँ किये सुभ सामं ।' गी० ५.२५.३
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सामो: सं०पु०कए० (सं० सामकम् = मूलधन > प्रा० सामअं > अ० सामउ ) । सामग्री, पूँजी ( फा० सामान ? ) । 'बालमीकि अजामिल के कछु हुतो न साधन सामो ।' विन० २२५.४