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तुलसी शब्द-कोश
सिरिस : सं०पु० (सं० शिरीष > प्रा० सिरीस = सिरिस ) । वृक्ष विशेष जो ग्रीष्म में फूलता है और उस के फूलों में अति सूक्ष्म केसर ही गुथे होते हैं । 'भेद कि सिरिस सुमन कन कुलिस कठोरहि ।' जा०मं० ६४
सिरु : सिर + कए० । 'सीता चरन भरत सिरु नावा । मा० ७.६.२ सिरोमनि : सं० + वि० (सं० शिरोमणि) । (१) सिर पर पहनी जाने वाली मणि, शिरोभूषण । (२) शिरोभूषण मणि के समान उत्तम श्रेष्ठ । कृ० ४७ मा०
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१.२६.४
सिरोमने : सिरोमनि + सम्बोधन (सं० शिरोमणे ) । मा० ७.१३ छं० १ सिल : (१) सिला । मसाला आदि पीसने का प्रस्तर खण्ड । 'फोरहि सिल लोढ़ा सदन लागें अढ़ क पहार ।' दो० ५६० (२) सं०पु० (सं० शिल) । कटे खेत में बचे - पड़े अन्न के दाने ।
सिलन : सिला + संब० । शिलाओं ( चट्टानों) पर । 'सिलनि चढ़ि चितवन ।' गी०
१.५२.५
सिलपोहनी : सं० स्त्री० (सं० शिलापोहन) । (१) विवाहोत्सव के पूर्व शिलापोहन कार्य होता है जब घर की सिल पर धोई आदि पीसने कार्य पूरा कर उस पूज दिया जाता तथा उत्सव भर उससे काम लेना बन्द करके मण्डप के स्तम्भ के पास रख दिया जाता है । (२) भावरों के समय वर उक्त सिल पर वधू को आरोहण कराता है जिसे 'अश्मारोहण' कहते हैं; फिर वर उस सिल को पैर से हटाता — अपोहन करता है अत: 'शिलापोहन' का यह दूसरा अर्थ है । 'सिलपोहनी करि मोहनी मन हर्यो मूरति साँवरी ।' जा०मं० छं० १८
सिला : (१) सं०स्त्री० (सं० शिला ) | बड़ा प्रस्तर खण्ड या चट्टान । 'फटिक सिला ।' मा० ५.२६.८ (२) सिल (सं० शिव ) । 'रूप रासि बिरची बिरंचि मनो सिला लवनि रति काम लही री ।' गी० १.१०४.४ ( खेत की फसल कट जाने पर जो दाने छूट जाते हें उन्हें आधुनिक अवधी में 'सीला' कहते हैं और गरीब लोग बीन लेते हैं) ।
सिलाकन : सं०पु० (सं० शिलाकण ) । पत्थ के छोटे टुकड़े । 'गिरि मेरु सिलाकन होत ।' कवि० २.५
सिलातल : सं०पु० (सं० शिलातल ) । चट्टन का चौरस ऊपरी भाग । गी० २.४५.३
सिलिप : सं०पु० (सं० शिल्प) । वास्तुकला, कारीगरी । रा०प्र० ७.२.७ सिलिपि: सं० स्त्री० (सं० शैल्पी = शिल्पविद्या) वास्तुकला + मूर्तिकला की कारीगरी । दो० १८४
सिलोमुख : सं०पु० (सं० शिलीमुख) । (१) बाण (२) भ्रमर । 'रावन सिर सरोज बमचारी । चलि रघुबीर सिलीमुख धारी ।' मा० ६.९२.७
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