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तुलसी शब्द-कोश
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सुजानि : सुजान (सं० सुज्ञानिन्>प्रा० सुजाणि) । 'सर्बान सोहात है सेवा-सुजानि
टाहली।' कवि० ७.२३ सुजानु, नू : सुजान+कए । मा० २.३१४.३, १७२.५ सुजीवन : (१) स्वजीवन (२) उत्तम जीवन । 'प्रानहु के प्रान से सुजीवन के जीवन
से ।' गी० २.२६.४ सुजीवनु : सुजीवन+कए० उत्तम जीवन । मा० १.६.६ सुजोग : (दे० जोग) (१) उत्तम ग्रह-मेलापक । (२) औषधियों का उत्तम मिश्रण
(३) उत्तम आधार (पात्र) आदि का सम्पर्क (४) उत्तम भूमि आदि का प्रभाव (५) सिलाई, रंग, काटछाँट आदि का उत्तम संबन्ध । “ग्रह भेषज जल
पवन पट पाइ कुजोग सुजोग । होहि कुबस्तु सुबस्तु जग ।' मा० १.७ क सुजोधन : सं०पु० (सं० सुयोधन) । महाभारत में धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ पुत्र=
दुर्योधन । कृ० ६१ सुजोर : वि० (सं० सुजोड) । (१) उत्तम जोड़ों (बन्धनों) वाला; (२) सुदृढ ।
"बिद्रुम खंभ सुजोर ।' गी० ७.१६.३ सुझाउ : आ०-प्रार्थना-मए । तू सुझा दे, दिखा दे । 'असुझ सुझाउ सो।'
विन० १८२.५ सुझाए, ये : भूकृ०पु० । दिखाये (से); शुद्ध किये (जाने पर) । 'तेरे ही सुझाये
सूझे ।' विन० १८२.५ सटुकि : पूव० । सटक कर, चाबुक लगाकर । चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न
होइ निबाहु ।' मा० १.१५६ सुठान : सं०पु+वि० (सं० सुस्थान>प्रा० सुठाण)। (१) उत्तम स्थिति;
(२) युद्ध में व्यूह-बद्ध (मोर्चे की) स्थिति; (३) उस स्थिति में ठहरा हुआ। 'भौंह कमान संधान सुठान जे नारि बिलोकनि बान ते बाँचे ।' कवि० ७.११८
(यहाँ मोर्चे में लक्ष्य पर सुस्थिर से भी तात्पर्य है)। सुठारी : वि०स्त्री० । उचित अङ्गव्यवस्था वाली; सुडोल । रा०न० १५ ।। सुठि : क्रि०वि० अव्यय (सं० सुष्ठ>प्रा० सुटू.)। भली प्रकार; और भी अधिक ; ___ अत्यन्त । 'सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका ।' मा० २.१८.७ सुठौरहि : (दे० ठोर) उत्तम स्थान पर; अपने स्थान पर (जहाँ के तहाँ ही)।
'बिसोक ल हैं सुरलोक सुठौरहि ।' कवि० ७.२६ सुडीठि : (दे० डीठि) उत्तम अनुकूल दृष्टि । दो० ७५ सुढंग : क्रि०वि० । उत्तम ढंग से; श्रेष्ठ रीति में । 'नटत सुदेस सुढंग ।' गी०
१.२.१४ सुढर : (१) सं०+वि.पु । अनुकूल ढलाव; अनुकुलता। (२) अनुकूल ढलने
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