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तुलसी शब्द-कोश
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(४) निर्विकार, पूर्ण, व्यापक, अविचल, कूटस्थ । 'सांत सुद्ध सम सहज
प्रकासा ।' मा० १.२४२.४ सांतरस : (सं० शान्तरस) । काव्य का नवम रस जिसका स्थायी भाव 'शम' होता
है और तत्त्वज्ञान आलम्बन रहता है। इसे सम्पूर्ण विकारात्मक मनोवेगों की
शान्तिदशा कहा गया है। मा० २.२७५ सांतरसु : सांत रस+कए । केवल शान्तरस । 'धरें सरीर सांतरसु जैसें ।' मा०
१.१०७.१ साति : सं०स्त्री० (सं० शान्ति) । (१) चित्त की पूर्ण मात्त्विकदशा, शमदशा
जिसमें दुःख और मोह का पूर्ण शमन हो जाता है । 'सांति सुमति सुचि सुदर रानी ।' मा० २.२३५.७ (२) ताप शमन । (३) वैदिक शान्तिमन्त्र । 'सांति
पढ़हिं महिसुर ।' मा० १.३१६.६ साई : साईं। साईदोह : वि.पु(सं० स्वामिद्रोह-स्वामिने द्रुह्यति यः>प्रा० सामिदोह) ।
स्वामी के प्रति द्रोहशील, स्वामी से वैर रखने वाला । 'साइंदोह मोहि कीन्ह
कुमाता । मा० २.२०१.६ साइदोहाई : साइंदोहाई में; स्वामिद्रोह भावना में ; स्वामि के प्रति वैर भाव में । ___ 'मोहि समान मैं साईदोहाई।' मा० २.२६८.४ साइदोहाई : सं०स्त्री० (सं० स्वामिद्रोहता>प्रा० सामिदोहया) । स्वामी के प्रति
द्रोह करने की भावना । 'स्वामी की सेवक-हितता सब, कछ निज साईदोहाई ।
मैं मति तुला तौलि देखी, भइ मेरिहि दिसि गरुआई ।' विन० १७१.६ साई : वि०पु० (सं० स्वमिन् >प्रा० सामि, सामी) । स्वामी, प्रभु । 'सिंघासन
पर त्रिभुवन साईं।' मा० ७.१२.८ साईंद्रोह : साइंदोह । विन० ३३.६ साउज : सं०० (सं० श्वापद>प्रा० सावज्ज)। (शिकार किये जाने वाले) वन्य
जन्तु । 'सकल कलुष कलि साउज नाना ।' मा० २.१३३.३ साक : सं०० (सं० शाक) । सब्जी, भाजी । 'साक बनिक मान गुन गन जैसें ।'
मा० १.३ १२ साकं : अव्यय (सं.)। सहित, साथ। 'श्रीराम सौमित्रि साकं ।' विन० ५१.८ साका : (१) सं०० (सं० शक्य>प्रा० सक्क)। सामर्थ्यानुसार किया जाने वाला
कर्म । (२) (सं० शाक =संवत्) । ख्याति, प्रसिद्धि । 'तस फल देउँ उन्हहि
करि साका।' मा० २.३३.८ साके : साका+ब० । यशः प्रशस्तियां, कीति-गाथाएँ । 'जग जुग जग साके केसव
के ।' कृ०६१
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