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तुलसी शब्द-कोश
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बखानिहैं : आ०प्रब०भ० । बखानेंगे, वर्णन करेंगे। त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि
नारदादि बखानिहैं ।' मा० ४.३० छं० बखानी : बखानी+ब। वणित की। 'अपर कथा सब भूप बखानीं।' मा०
१.२६५.२ बखानी : (१) बखानि । 'स्याम गौर किमि कहीं बखानी।' मा० १.२२६.२
(२) भूक स्त्री० । वणित की। 'अति लोभी सन बिरति बखानी ।' मा०
५.५८.३ बखाने : बखान करने से । 'अघ कि रहहिं हरि चरित बखाने ।' मा० ७.११२.६ बखाने : भूक ००ब० । व्याख्यापूर्वक स्पष्ट किये। 'तेहि तें कछु गुन दोष बखाने ।'
मा० १.६.२ बखाने : बखानइ । बखान सकता है । 'मक कि स्वाद बखान ।' आ०म० ८७ बखानो : बखानहु । 'ती सकोच परिहरि पा सागौं परमारह बखानो।' कृ० ३५ बखान्यो : भक००कए । वर्णन किया । 'बेद पुरान बखान्यो।' विन० ८८.३ बखार : सं०० (सं० उपस्कार >प्रा० वक्खार-संग्रह)। कोठा, जिसमें अन्न
भरा जाता है । 'बिबिध बिधान धान बरत बखार हीं।' कवि० ५.२३ बग : बक । बगुला। मा० १.४१ बगध्यानी : वि०० (सं० वकध्यानिन्) । बगुले के समान छल-ध्यान करने वाला;
(जिस प्रकार मछली पकड़ने हेतु बक-पक्षी ध्यान मुद्रा ग्रहण करता है, उसी प्रकार) पूजा, भक्ति, तप आदि का प्रदर्शन कर छलने वाला। तब बोला
तापस बगध्यानी।' मा० १.१६२.६ बगपांति : बगुलों की श्रेणी । गी० ७.१८.३ बगमेल : वि०+ क्रि०वि० (सं० वर्ग मेल>प्रा० वग्ग मेल) । झुण्ड के झुण्ड मेला
बनाये हुए। कछुक चले बगमेल ।' मा० १.३०५ बगरि : पूक० (सं० विकीर्य>प्रा० विगरिअ> अ० विगार)। फल कर, बिखर
कर । 'जाको जस लोक बेद रह्यो है बगरि सो।' विन० २६४.४ बगरे : भूक००० (सं० विकीर्ण>प्रा० विगरिय)। बिखरे, फैले। 'परनिंदक
जे जग मो बगरे।' मा० ७.१०२.५ बधनहा : संपु० (सं० व्याघ्रनख>प्रा० वग्धनह) । बाघ का नाखून या उस
आकार का आभूषण जो बच्चों को पहनाया जाता है। ‘कठुला कंठ बघनहा
नीके ।' गी० १.३१.३ बघाजुड़ानी : सं०स्त्री०। (१) व्याघ्र या चीते को शीतल उपचारों से वश में
करने की क्रिया । (२) बघा=एरण्ड वक्ष के नीचे शीतल होने (विश्राम) की क्रिया । 'जरी सुंघाइ कुबरी कौतुक करि जोगी बघाजुडानी।' क० ४७ (अर्थात् कुबरी योगिनी ने ऐसी जड़ी सुघाई कि कृष्ण जैसे पुरुष व्याघ्र को वश में कर
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