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तुलसो शब्द-कोश
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भौम : सं०० (सं०) । भूमिपुत्र=मङ्गल ग्रह । 'कंज दलनि पर म नहुं भौन दस
बैठे।' गी० १.१०८.२ भोमबार : मङ्गलवार (सप्ताह का एक दिन)। मा० १.३४.५ भ्रम : (१) संपु० (सं.)। विपर्यय ज्ञान, मिथ्याबोध । मा० १.३१.८
(२) संसार तथा देहादि को सत्य मानना । 'अनुभव सुख उतपति करत भव भ्रम धरै उठाइ।' वैरा० २० (३) अनिश्चय। 'चकित भए भ्रम हृदयें बिसेषा ।' मा० १.५३.१ (४) आ०ए० । (सं० भ्रमति) । भटकता है, भ्रमण करता रहता है । 'लोलुप भ्रम गृहपसु ज्यों जहँ तहँ ।' वि० ८६.३ (५) गोस्वामी जी ने जगत् के विषय में (रामानुचार्य के अनुसार) तीन भ्रम माने हैं(क) सांख्य में प्रकृति को तथा चार्वाकमत में महाभूतों को सत्य माना जाता है । (ख) बौद्ध तथा शाङकर मत जगत्प्रपञ्च को असत् (मिथ्या) मानते हैं । (ग) न्यायदर्शन परमाणु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन को नित्य मानता तथा स्थूल पृथ्वी, जल, तेज और वायु को अनित्य कहता है। तीनों से पृथक मत है कि सम्पूर्ण प्रपञ्च नित्य परमेश्वर का अंश होने से नित्य है तथा देहादि संसार अनित्य है। 'कोउ कह झूठ सत्य कह कोऊ उभय प्रबल कोउ
मान । तुलसिदास परिहर तीनि भ्रम सो आपन पहिचाने। विन० १११.४ भ्रमत : वकृ.पु. । घूमते, भटकते, भ्रान्त होते । 'भव पंथ भ्रमत ।' मा० ७.१३.२ भ्रमति : वकृ०स्त्री० । चकराती । 'भ्रमति बुद्धि अति मोरि ।' मा० १.१०८ भ्रमबात : सं०० (सं० भ्रमवात) । चक्रवात, बवंडर । कवि० ६.३७ भ्रमबारि : मृग बारि । मृग मरीचिका । विन० १३६.२ भ्रमर : सं०+वि.पु. (सं.)। भ्रमणशील+भौंरा । गी० ७.६.३ भ्रमहि, हीं : आप्रब० । घूमते हैं, चकराते हैं । 'बालक ध्रुमहिं न भ्रमहिं गहादी।'
मा० ७.७३.६ (२) उब० । हम घूमते हैं, गतागत करते हैं । 'करमबस
भ्रमहीं।' मा० २.२४.५ भ्रमाही : भ्रमहीं । 'हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं।' मा० १.११५.६ भ्रमि : पूकृ० । भटक कर, चक्कर खाकर । 'मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं......
जनमेउँ ।' मा० ७.६६.८ भ्रमित : वि० । भ्रम युक्त । 'भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा ।' मा० ७.८२.८ भ्रमु : भ्रम+कए० । अनिश्चय । मा० २.६६.२ । भ्रष्ट : विभूकृ० (सं.)। पतित, नष्ट । मा० १.१८३ छं. 'भ्राज, भ्राजइ : आ०प्रए० (सं० भ्राज दीप्ती)। शोभित होता है, प्रकाशमान
है। 'भ्राज विबुधापगा आप पावन परम ।' विन० ११.३ 'तरुण रबि कोटि तनु तेज भ्राज ।' विन० १०.२
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