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तुलसी शब्द-कोश
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मानो : (१) मान्यो । समझा । गीधु मान्यो गुरु के ।' कवि० ७.२४ (२) मानहुं
(उत्प्रेक्षार्थक अव्यय) । 'मानो बारे तें पुरारि ही पढ़यो है ।' कवि० १.१० मानौं : मानउँ । 'मानौं न सकोचु हौं ।' कवि० ७.१२१ मानौ : मानहुं (उत्प्रेक्षा)। गी० १.८४.४ मान्य : वि० (सं०) । सम्माननीय, आदरणीय । तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ ।' मा०
७.६८ ख मान्यता : सं०स्त्री० (सं०) । मान्य होना । (१) ख्याति, यश । 'लोक मान्यता
अनल सम ।' मा० १.१६१ क (२) आदर । 'करि पूजा मान्यता बड़ाई।' मा०
१.३०६.४ मान्यो : मानेउ । अनुभव किया। सील सिंधु तुलसीस भलो मान्यो भलि के।'
कवि० ६.५५ मापा : भूकृ०० (सं० मापित)। व्याप्त हो गया, (एक छोर से दूसरे तक) सर्वाङ्ग
ओत-प्रोत हुआ। तलफत बिषम मोह मन मापा।' मा० २.१५३.६ मापी : भूक०० । सर्वाङ्ग व्याप्त-ओत-प्रोत हो गई । 'माजहि खाइ मीन जन
मापी।' मा० २.५४.४ माम् : सर्वनाम (सं०) । मुझे । मा० २ श्लोक १ मामभिरक्षय : (सं०-माम् +अभिरक्षय)। मुझे सर्वात्मना रक्षित कर । मा०
६.११५ छं० मामवलोकय : (सं०-माम् +अवलोकय) । मुझे देख । मा० ७.५१.१ मायें : माता ने । 'सरल सुभाय माय हिय लाए।' मा० २.१६५.१ माय : माता (प्रा० माया>अ० माय) । 'सुनिय माय मैं परम अभागी।' मा०
२.६६.३ (२) माया । 'ब्रह्म जीव माय हैं।' गी० २.२८.३ (३) माया =
छलना । 'सूझत मीचु न माय ।' दो० ४८२ मायन : सं०० (सं० मातृ पूजन, मातृ का पूजन)। विवाहादि के पूर्व स्त्रियों द्वारा
किया जाने वाला सप्त-मातृका=देवी पूजन । 'बनि बनि आवति नारि जानि
गृह मायन हो ।' रा०न० ५ मायहि : माया को । 'बहुरि राम मायहि सिरु नावा ।' मा० १.५६.५ मायाँ : माया से । 'निज मायाँ बसंत निरमयऊ ।' मा० १.१२६.१ माया : सं०स्त्री० (सं०)। (१) परमेश्वर की आदिशक्ति, योगमाया, महामाया,
सीता । 'आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया । सो अवतरिहि मोरि यह माया ।' मा० १.५२.४ (२) त्रिगुणात्मक प्रकृति । 'माया जीव सुभाव गुन काल करम महदादि ।' दो० २०० 'माया गुनमई ।' विन० १३६.४ (३) जीव को संसारचक्र में भ्रमण कराने वाली (महामाया का परिणाम विशेष) अविद्या, व्यामोहिका शक्ति । 'सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल ।' मा०
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