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तुलसी शब्द-कोश
बृदन्हि: बृंद + संब० वृन्दों (में) । 'कालिका बूंद बुदन्हि बहु मिलीं ।' मा०
६.९३ छं०
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बृदाबन : सं०पु० (सं० वृन्दावन) । (१) तुलसीवन । (२) बजमण्डल का स्थान विशेष |
बृदारका : वृंदारक । देव । मा० १.३२६ छं० ४
बुक : (१) वृक । भेड़िया । मा० २.६२.८ (२) बृकासुर ।
बृकासुर : कंस राजा का साथी एक असुर जो भेड़िये के रूप में रहता और व्रजमण्डल में आतङ्क करता था । दो० ४७२
बुक : बुक + कए० । कोई भेड़िया । 'बकु बिलोक जिमि मेष बरूथा । मा०
६.७०.१
बृजवासिन: व्रजवासियों । 'कंस करी बृजदासिन पे करतूति कुर्भाति ।' कवि ०
७. १३१
बृत्तांत : सं०पु० (सं० वृत्तान्त) | समाचार । मा० ४.२५.१
बृत्ति : वृत्ति । चित्त व्यापार, अन्तःकरण की दशा ( जिसमें चित्त विषयाकार हो जाता है ) । 'सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा ।' मा० ७.११८. १
बृह : वृथा हो । 'बड़ बय बृथहि अतीति ।' विन० २३४.२ बुथा : अव्यय (सं० वृथा ) । व्यर्थ । मा० ६.८.२
बृद्ध : बूढ़ा । मा० १.२०४
बृष : सं०पु० (सं० वृष) (३) उक्त राशि पर बृषकेतु, तू : सं०पु० (सं०
१.५३.८
१.२४३
बृषभ : वृषभ । बेल । मा० बृषली : सं० स्त्री० (सं०
वृषली) । ( १ ) शूद्रा (२) वन्ध्या (३) रजस्वला (४) नव- प्रसूता (५) कुआर कन्या जो पिता के घर रह रही हो । 'अनाचार खल बृषली स्वामी ।' मा० ७.१००.८ ( वृषली स्वामी - शूद्रा पति से मुख्यार्थ है परन्तु अनाचार की दृष्टि से सभी अर्थ व्यङ्ग्य हैं ) ।
बृषासुर : (सं० वृषासुर) । (१) बैल के रूप में रहने वाला कंस का मित्र । (२) एक दैत्य (भस्मासुर ) जिसे शिव ने वर दिया था कि जिस पर हाथ रख दे वह भस्म हो जाय । वह शिव को ही भस्म कर पार्वती को चाहता था तो विष्णु ने उसे मोहित कर उसी के सिर पर उसका हाथ रखवा दिया, फलतः वही भस्म हो गया । कवि० ७.१७०
। (१) बैल | मा० २.२३६.३ (२) एक नक्षत्र राशि । ( बैशाख - ज्येष्ठ में ) सूर्य के आने का समय । कृ० २ε वृषकेतु) । वृषभ वाहन = शिव । मा० १.३५;
बृष्टि : सं० स्त्री० (सं० वृष्टि) । वर्षा । मा० ४.१६.१० बृहद्, द: वि० (सं० बृहद्) । विशाल । विन० २६.३
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