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तुलसी शब्द-कोश
भेदबुद्धि : जीव ब्रह्म का अंश है, ब्रह्म ही जगत का उपादान है अत: जड़-चेतन विश्व
ब्रह्मरूप (राममय) है-यह 'अभेद बुद्धि' है; इससे भिन्न 'भेदबुद्धि' है जो जीव और जगत् को ब्रह्म से पृथक् भासित कराती है तथा एक ही उपादान तत्त्व से बनी सृष्टि में विविधता लाती है। जागतिक भ्रम, प्रान्त बुद्धि, विपर्यय, अज्ञान । 'तुलसिदास प्रभु मोहजनित भ्रम भेद-बुद्धि कब बिस रावहिंगे।' गी०
५.१०.५ भेदभगति : ऐसी भक्ति जिसमें अपने को आराध्य-लीन करने का संकल्प नहीं होता,
प्रत्युत ब्रह्म के अंशरूप में पृथक सत्ता रख कर भक्त लीलादर्शन करता है । दास्य, वात्सल्य, माधुर्य तथा भ्रातृत्व भक्तियाँ इसी कोटि की हैं । यहाँ भक्ति चरम साध्य (परम पुरुषार्थ) मान्य है जब अभेद भक्ति में ब्रह्मलीनता ही चरम लक्ष्य रहता है- भक्ति उसका साधन है (शाङकर मत में अभेद भक्ति मान्य है) । 'तातें मुनि हरि लीन न भयऊ । प्रथमहिं भेद-भगति बर लयऊ ।' मा०
३.६.२ भेदमति : भेदबुद्धि । 'तुलसिदास प्रभु हरहु भेदमति ।' विन ० ७.५ भेदमाया : भेदबुद्धि लाने वाली व्यामोहिका माया जो जीव के साथ अज्ञान या
अविद्या नाम से जानी जाती है (यह परमेश्वर की आदि शक्ति महामाया की
अंश-सृष्टि है) । भक्ति अनवरत गत-भेदमाया ।' विन० १०.६ भेदा : भेद । मा० ७.११५.१३ भेदि : पूकृ० । भेदन कर, चीर कर । 'भेदि भुवन करि भानु बाहिरो तुरत राहु दे
तावौं ।' गी० ६.८.२ भेदु : भेद+कए । (१) एकमात्र अन्तर । सुनि गुन-भेदु समुझिहहिं साधू ।' मा०
१.२१.३ (२) गुप्त रहस्य । 'बूझि न बेद को भेदु बिचारै ।' कवि० ७.१०४ भेदै : आ०प्रए । भेदन करे, फाड़ कर प्रवेश कर जाए । 'ऐसी बानी संत की जो
उर भेदै आइ।' वैरा० २० भेरि, री : सं०स्त्री० (सं०) । वाद्य विशेष, बड़ा ढोल या नक्कारा । मा० १.२६३.१;
६.३६.१० भेहि : आ.प्रब० । भिगोते-ती हैं, ओत-प्रोत करते-ती हैं । 'देहिं गारि बर नारि मोद ___ मन भेवहिं ।' पा०म० १३८ भेवहि : आ०-आज्ञा-मए । तू भिगो, ओत-प्रोत कर । 'भगति मनु भेवहि ।'
पा०म० २४ भेषज : सं०० (सं०) । दवा । मा० १.७ क भैंसा : सं० पु. (सं० महिष>प्रा० महिस) । मा० ६.७६.१ भै : भइ । हुई । 'चलत गगन भै गिरा सुहाई। मा० १.५७.४
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