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तुलसी शब्द-कोश
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बस : बसइ । 'जनक नाम तेहि नगर बस नरनायक ।' जा०म०६ बसैया : वि० निवास करने वाला-वाले । गी० १.६.६ बसहैं : आ०म०प्रब० (सं० वासयिष्यन्ति>प्रा. वसाविहिति>अ० वसाविहिहिं)।
बसाएंगे (स्थापित करेंगे) । 'अभय बाँह दै अमर बसैहैं।' गी० ५.५१.४ । बसंहौं : बसाइहौं । 'मन मधुकर पन करि तुलसी रघुपति पद कमल बसहौं ।'
विन० १०५.३ बस्तु : सं०स्त्री० (सं० वस्तु-नपु०)। मा० १.१०.१० बस्य : वि० (सं० वश्य) । वशीभूत, अधीन । 'काल बस्य उपजा अभिमाना।' ___ मा० ६.८.६ बस्यो : बसेउ । 'तुलसी चातक मन बस्यो घन सों सहज सनेह ।' दो० २९४ 'बह बहइ, ई : आ०प्रए० (सं० वहति>प्रा. वहइ)। (१) प्रवाहित होता-ती है । 'बह समीप सुरसरी सुहावनि ।' मा० १.१२५.१ 'जलु लोचन बहई ।' मा० २.६०.६ (२) तरङ्गों में गति लेता है-लेती है; चलता-ती है। 'त्रिबिध बयारि बहइ सुख देनी ।' मा० २.१३७.८ (३) कारगर होता है, कार्य में समर्थ गति लेता है । 'बहइ न हाथु दहइ रिपु छाती।' भा० १.२८०.१ (४) धारा में बहा कर ले चलता है । जलधि अगाध मौलि बह फेनू ।' मा० १.१६७.८ (५) धारण
करता है। (६) भार ढोता है। बहत : वकृ.पु । बहता-बहते । (१) चलता। 'बहत समीर विबिध ।' मा०
२.३११.६ (२) धारण करता । 'सेवक सुखद बांको बिरद बहत हौं ।' विन०
७६.३ बहति : वकृ०स्त्री० । बह रही । मा० ६.८७ छं० हतु : बहत+कए । अकेला वहन (धारण) करता। 'बांको बिरुद बहतु हौं।'
कवि० १.१८ बहते : क्रियाति००० । यदि धारण करते, वहन करते । 'जो अति बांकुर
बिरद न बहते । तो "तुलसी से 'सुगति न लहते ।' विन० ६७.५ बहनु : बहत= बाहन+कए । सवारी । 'बषभ बहन है ।' कवि० ७.१६० बहराइच : उत्तर प्रदेश में नेपाल सीमा का एक नगर जहाँ ग्राजी मियाँ (मुहम्मद
गौरी के सेनानायक सैयद सालार) की कब्र है जिसे दरगाह कहते हैं । वहाँ मेला लगता है और माना जाता है कि दरगाह के पानी में नहाने से कोढ़ अच्छा होता है। यह भी कहा जाता है कि पहले यहाँ 'बालार्क कुण्ड' था जिसमें स्नान कर लोग रोगमुक्त होते थे, उसी पर मकबरा बनाया गया और अब उसी की मान्यता हो चली है। 'कब कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाइ।' दो०
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