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तुलसी शब्द-कोश
बिसि : पूकृ० । विकसित हो (कर) । फैलकर । 'बिकसि चहूं दिसि रही लोनाई ।'
गी० १.१०८.४
बिकसित भूकु०वि० (सं० विकसित ) | खिले हुए । 'बिकसित कंज कुमुद
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बिलखाने ।' गी० १.३६.३
fame : बिकसित ( प्रा० विकसिय ) । खिले । 'ए पंकज बिकसे बिधि नाना ।' मा०
७.३१.७
बिकसो : भूकु०पु०कए० । खिला । विकसित हुआ । 'बारिज बन बिकसो री ।
गी० १.१०४.२
'fast faers : आ०प्र० (सं० विक्रीयते > प्रा० विक्काइ ) । बिकता है, बेचा जाता है । पय पय सरिस बिकाइ ।' मा० १.५७ ख
बिकाउँ : आ०उए । बिकूं, बिक जाऊँ । 'कृपासिंधु बिन मोल बिकाउँ ।' विन०
१५३.७
बिकाउ गो : आ०भ०पु० उ० । बिकूंगा । 'बिनु मोलही बिकाउँगो ।' गी०
५.३०.४
farai : क्रियातिoy'० ए० । यदि सो बिकता । 'जो पै कहूं कोउ बूझत बातो ।' तो तुलसी बिन मोल बिकातो ।' विन० १७७.५
बिकानी : भूक०स्त्री० । बिक गई । 'तुम्ह प्रिय हाथ बिकानी ।' कृ० ४७ बिकाने : भूकृ०पु० ०ब० । बिक गये । 'हाथ हरिनाथ के बिकाने रघुनाथु ।' कवि०
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६.५५
बिकानी : भूकु०पु०कए० । बिक गया । 'हौं तो बिन मोल को बिकानो ।' हनु० ३८
बिकार : सं०पु० (सं० विकार) । (१) वस्तु में तात्त्विक परिवर्तन बिना हुए जो परिणाम होता है उसे 'विवर्त' कहते हैं; जैसे, रज्जु में सर्प । तात्त्विक परिवर्तन
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दही । वैष्णव मत
के साथ होने वाले परिणाम को विकार कहते हैं । जैसे, दूध विवर्ता और विकार दोनों ही को ब्रह्म में मान्य न करके जगत् का उसी से परिणाम स्वीकार करता है - इस मान्यता को 'अविकृत परिणामवाद' कहते हैं -- जैसे, पानी से हिम । 'चिदानंदमय देह तुम्हारी । बिगत बिकार जान अधिकारी । मा० २.१२७.५ शङ्करमत में इसे भी 'विवर्त' ही कहा जाता है । (२) (क) अविद्या ( तम, अज्ञान ) ( ख ) अस्मिता ( मोह) (ग) राग ( महामोह) (घ) द्वेष (तामिस्र) (ङ) अभिनिवेश ( अन्धतामिस्र) इन पाँच से जनित मन के दोष । 'दारुन अविद्या पञ्च जनित बिकार श्री रघुबर हरे ।' मा० ७.१३० छं० (३) काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर - षड्वर्ग से उत्पन्न मानसिक परिवर्तन । 'षट बिकार जित अनघ अकामा ।' मा० ३.४५.७