Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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पट्टावलिमें बताया है कि गौतम, सुधर्म और जम्बूस्वामीने बासठ वर्षों तक धर्मप्रचारका कार्य किया। महावीर स्वामीके पश्चात् बारह वर्षों तक गौतम स्वामीने केवलीपद प्राप्त कर धर्मप्रचार किया । इनके पश्चात् बारह वर्षों तक सुधर्माचार्य केवली रहे । अनन्तर अड़तीस वर्षों तक जम्बूस्वामी केवली बने रहे । इस प्रकार बासठ वर्षों तक उक्त तीनों केवलियोंकी ज्ञान ज्योति प्रकाशित होती रही। तत्पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए। चौदह वर्षों तक विष्णुने, सोलह वर्षो तक नन्दिभित्रने बाईस वर्षों तक अपराजितने, उन्तीस वर्षों तक गांवद्धनने और उनतीस वर्षों तक भद्रबाहुने ज्ञानदीपको प्रज्वलित रखा । तत्पश्चात् दश वर्षो तक दशपूर्वधारी विशाखाचार्यने, उन्नोस वर्षों तक प्रोष्ठपचायने सत्रह वर्षो तक क्षत्रियाचार्यने, इक्कीस वर्षों तक जयसेनाचायेने, अट्ठारह वर्षों तक नागसेनाचार्य ने सत्रह वर्षो तक सिद्धार्थाचार्यने, अट्ठारह वर्षो तक धृतिसेनाचार्यने तेरह वर्षों तक विजयाचार्यने, बोस वर्षो तक बुद्धिलिङ्गाचार्यने, चौदह वर्षों तक देवाचार्यने एवं चौदह वर्षो तक धर्मसेनाचार्य श्रुतका प्रवचन किया। इस प्रकार एकसी तिरासी वर्षों तक दशपूर्वधारी श्रुतका प्रचार करते रहे । तदनन्तर अट्ठारह वर्षो तक एकादशांग - धारी नक्षत्राचार्यने, वीस वर्षा तक जयपालाचार्यने उनतालीस वर्षो तक पाण्डवाचार्यने, दश वर्षा तक ध्रुवसेनाचार्यने एवं बत्तीस वर्षो तक कंसाचार्यने श्रुतज्ञानको ज्योतिको प्रज्वलित किया 1 इस प्रकार एकादशांगधारी उक्त पाँच आचार्य श्रुतज्ञानका प्रवचन किया। अनन्तर दशांगके ज्ञाता शुभचन्द्राचार्यने छः वर्षों तक, यशोभद्राचार्यने अट्ठारह वर्षों तक, भद्रबाहुने तेईस वर्षों तक और लोहाचार्यने पचास वर्षो तक अंगज्ञानका प्रवचन किया । अनन्तर अट्ठाईस वर्षो तक एकांगके धारी अहिवल्याचार्यने, इक्कीस वर्षों तक माधनन्द्याचार्यने, उन्नीस वर्षों तक धरसेनाचार्यने श्रुतज्ञानको जावित रखा |
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१. अन्तिम जिणणिव्याण केवलणाणी य गोयम-मुणिदां । बारह वासे य गणो सुम्मसामी य संजादो ॥ १ ॥ तह बारह वासे पुण संजादो जम्बूसामि मुणिणाही । अठतीस वास रहियो केवलणाणी य जबिकट्ठो | २१| वासठि केवल वासे तिहि मुणी गोयम सुधम्म जम्बू य । बारह बारह दो जण तिय दुगहीणं च चालोसं ॥ ३ ॥ सुयकेवल पंच जगा वासहि वासे गये सुसंजावा । पत्र मं च उद- वासं विण्डुकुमारं
मुयध्वं ॥ ४ ॥
१६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा