Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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प्रकारकी भाषाओंका प्रतिपादन किया गया है। विषयवर्णनकी दृष्टि से आधुनिक मनोविज्ञान ज्ञानप्रवाद और सत्यप्रवादके अन्तर्गत है। आत्मप्रवादपूर्वमें निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयोंकी अपेक्षासे जीवके कत्तु त्व, भोक्तृत्व, सूक्ष्मत्व, अमूर्तत्व आदिका विवेचन किया है । कर्मप्रवादपूर्वमें आठों कोके स्वरूप, कारण एवं भेद-प्रभेनोग निषण किया है । प्रपामार्ग लामावा. का त्याग, उपवास-विधि, पंच समिति, तीन गुप्ति आदिका वर्णन है । विद्यानुवादपूर्वमें सात सौ अल्पविद्याओंका और पांच सौ महाविद्याओंका विवेचन आया है । साथ ही इसमें भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन और चिन्ह इन आठ महानिमित्तोंका विषय भी निबद्ध है । वर्तमान सामुद्रिक शास्त्र, प्रश्नशास्त्र एवं संहितागत विषय इसी पूर्वक अन्तर्गत समाविष्ट हैं | कल्याणवादमें सूर्य, चन्द्र, ग्रह, तारागण आदिके चारक्षेत्र, उपपादस्थान, गति, विपरीतगति और उनके फलीका निरूपण है। ज्योतिषशास्त्रके गणित और फलित दोनों ही विभाग इसो पूर्वके अन्तर्गत है। प्राणावायपूर्व में अष्टांग आयुर्वेद, भूतिकर्म, विविद्या एवं विभिन्न प्रकारके भौतिक विषयोंका परिज्ञान सम्मिलित है। रसायनशास्त्र और भौतिकशास्त्र सम्बन्धी अनेक सिद्धान्त भी इस पूर्वमें समाविष्ट हैं। क्रियाविशालपूर्वमें बहत्तर कलाओं सम्बन्धी चौसठ गुणों, शिक्षा, शिल्प, काव्यसम्बन्धी गुण-दोष एवं छन्दशास्त्रका वर्णन है । लोकबिन्दुसारमें आठ प्रकारके व्यवहार, चार प्रकारके बोज, मोक्ष प्राप्त करानेवाली क्रियाएं एवं मोक्षके सुखका वर्णन है ।
द्रव्यश्रुतके दूसरे भेद अंगबाह्यके चौदह भेद हैं
१. सामायिक, २. चतुर्विशतिस्तव, ३. वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५. वेनयिक ६. कृतिकर्म, ७. दशवकालिक, ८. उत्तराध्ययन, ९. कल्पव्यवहार, १० कल्प्याकल्प्य, ११. महाकल्प्य, १२. पुण्डरीक, १३. महापुण्डरीक और १४. निषिद्धिका ।
सामायिकनामक अंगबाह्यमें नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छः भेदों द्वारा समताभावके विधानका वर्णन है । चतुर्विंशतिस्तवमें तत्तत्काल सम्बन्धी चौबीस तीर्थकरोंकी वन्दना करनेकी विधि, उनके नाम, संस्थान, उत्सेध, पाँच महाकल्याणक, चौतीस अतिशय प्रभूतिका वर्णन है। वन्दना नामक अंगबाह्यमें एक तीर्थकर और उस तीर्थकर सम्बन्धी जिनालयों, वन्दना करनेको विधि एवं फलका चित्रण है। प्रतिक्रमणमें देवसिक रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ईपिथिक और औत्तमाथिक इन सात प्रकारके प्रतिक्रमणोंका वर्णन आया है 1 प्रमादसे लगे हुए दोषोंका निराकरण करना प्रतिक्रमण है। वैनयिक नामक अंगबाह्यमें ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्र१४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा