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द्वितीय अध्याय ] निर्धनता, अग्नि, बेड़ी, गौ, भैस, धन, कंकट, संयोग, वियोग, डाँस, मच्छर, पतन, धूलि और मानभंग आदिसे उत्पन्न हुये अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं; परन्तु न मालूम जो मनुष्य शुद्धचिद्रूपके स्मरण करनेवाले हैं उनके वे दुःख कहाँ विलीन हो जाते हैं ?
भावार्थः-जो महानुभाव शुद्धात्माका स्मरण करनेवाले हैं, उन्हें भूख नहीं सताती, प्यास दुःख नहीं देती, रोग नहीं होता, वात नहीं सताती, ठंड नहीं लगती, उष्णता व्याकुल नहीं करती, जलका उपद्रव नहीं होता, क्रूर मनुष्यों द्वारा कहे हुये दुष्ट वचन दुःख नहीं पहुँचाते, राजा आदि दण्ड नहीं दे सकते, दुष्ट स्त्री, पुत्र-शत्रुओंसे उत्पन्न हुआ दुःख नहीं भोगना पड़ता, निर्धनता-दरिद्रता नहीं होती, अग्निका उपद्रव नहीं सहन करना पड़ता, बन्धनमें नहीं बँधना पड़ता, गौ और अश्व आदिसे पीड़ा नहीं होती, धनकी चोरीसे दुःख नहीं होता, कांटे दुःख नहीं देते, अनिष्ट पदार्थोंका संयोग नहीं होता, इष्ट पदार्थ वियोग नहीं होता, डाँस-मच्छर दुःख नहीं दे सकते, पतन नहीं हो सकता तथा धूलि और मानभंगका भी कष्ट नहीं भोगना पड़ता । इसलिये शुद्धचिद्रूपका स्मरण परम सुख देनेवाला है ।। ३ ।।
स कोपि परमानन्दविद्रुपध्यानतो भवेत् ।
तदंशोपि न जायेत त्रिजगत्स्वामिनामपि ॥ ४ ॥
अर्थ:-शुद्धचिद्रूपके ध्यानसे वह एक अद्वितीय और अपूर्व ही आनन्द होता है कि जिसका अंश भी तीन जगतके स्वामी इन्द्र आदिको प्राप्त नहीं हो सकता ।
भावार्थः-इन्द्र, नरेन्द्र और धरणेन्द्र यद्यपि सर्वोत्तम
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