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छठा अध्याय ] अभ्यास करते हैं कि उनका मन शुद्धचिद्रपके ध्यानमें सदा निश्चल रूपसे स्थित बना रहे, जरा भी इधर-उधर चल विचल न हो सके ।।१६।।
सुखे दुःखे महारोगे क्षुधादीनामुपद्रवे । चतुर्विधोपसर्गे च कुर्वे चिपचिंतनं ।। १७ ।।
अर्थः-सुख-दुःख, उग्र रोग और भूख-प्यास आदिके भयंकर उपद्रवोंमें तथा मनुष्यकृत, देवकृत, तिर्यंचकृत और अचेतनकृत चारों प्रकार के उपसर्गों में मैं शुद्धचिद्रूपका ही चितवन करता रहूँ, मुझे उनके उपद्रवसे उत्पन्न वेदनाका जरा भी अनुभब न हो ।। १७ ।।
निश्चलं न कृतं चित्तमनादौ भ्रमतो भवे । चिद्रूपे तेन सोढानि महादुखान्यहो मया ।। १८ ।।
अर्थ :-इस संसार में मैं अनादिकालसे घूम रहा हूँ । हाय ! मैंने कभी भी शुद्धचिद्रूप में अपना मन निश्चल रूपसे न लगाया इसलिये मुझे अनन्त दुःख भोगने पड़े अर्थात् यदि मैं संसारके कार्योसे अपना मन हटाकर शुद्धचिद्रूप में लगाता तो क्यों मुझे अपार वेदना सहनी पड़ती ।। १८ ।।
ये याता यांति यास्यंति निर्वृतिं पुरुषोत्तमाः । मानसं निश्चलं कृत्वा स्वे चिद्रपे न संशयः ।। १९ ।।
अर्थः-जो पुरुषोत्तम-महात्मा मोक्ष गये, या जा रहे हैं और जावेंगे इसमें कोई संदेह नहीं कि । उन्होंने अपना मन शुद्धचिद्रूपके ध्यानमें निश्चल रूपसे लगाया, लगाते हैं और लगावेंगे ।
भावार्थ :--विना शूद्धचिपके ध्यानमें चित्त लगाये मोक्ष
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