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[ तत्वज्ञान तरंगिणी अनुपम सुखको प्राप्त करनेके लिए निराकुलता और विशुद्ध परिणामोंसे अपनी आत्मामें स्थिति करनी चाहिए ।। ४ ।। नो द्रव्यात्कीर्तितः स्याच्छुभखविपयतः सौधतूर्यत्रिकाद्वा रूपादिष्टागमाद्वा तदितरविगमात् क्रीडनाद्यादृतुभ्यः । राज्यात्संराजमानात् बलवसनसुतात्सत्कलत्रात्सुगीतात् भूषाद भूजागयानादिह जगति सुखं तात्त्विकं व्याकुलत्वात् ॥ ५ ॥
अर्थ : - यह निराकुलतामय तात्त्विक सुख न द्रव्यसे प्राप्त हो सकता है, न कीर्ति, इन्द्रियोंके शुभ विषय, उत्तम महल और गाजे-बाजोंसे मिल सकता है । उत्तमरूप, इष्ट पदार्थोंका समागम, अनिष्टोंका वियोग और उत्तमोत्तम क्रीड़ा आदि भी इसे प्राप्त नहीं करा सकते । छह ऋतु, राज्य राजाकी ओरसे सन्मान, सेना, उत्तम वस्त्र, पुत्र, मनोहारिणी स्त्री, कर्णप्रिय गाना, भूषण, वृक्ष, पर्वत और सवारी आदिसे भी प्राप्त नहीं हो सकता; क्योंकि द्रव्य आदिके सम्बन्धसे चित्त व्याकुल रहता है और चित्तकी व्याकुलता, निराकुलतामय सुखको रोकनेवाली होती है ।
भावार्थ: - चाहे मनुष्य कैसा भी द्रव्यपात्र क्यों न हो जाय । कीर्ति, इन्द्रियोंके विषय, महल, रूप, राज्य आदि पदार्थ भी उसके क्यों न यथेष्ट हो जाँय परन्तु उनसे वह निराकुलतामय सुखका अनुभव नहीं कर सकता । सदा उसके परिणाम द्रव्य, कीर्ति आदि पदार्थों के जुटाने में ही व्यग्र रहते हैं ।। ५ ।। पुरे ग्रामेऽटव्यां नगशिरसि नदीशादिसुतटे मठे दर्या चैत्योकसि सदसि स्थादौ च भवने । महादुर्गे स्वर्गे पथनमसि लतावस्त्रभवने स्थितो मोही न स्यात् परसमयरतः सौख्यलवभाक् ||६||
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