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अठारहवाँ अध्याय
शुद्धचिद्पकी प्राप्तिका क्रम श्रुत्वा श्रद्धाय वाचा ग्रहणमपि दृढं चेतसा यो विधाय कृत्वांतः स्थैर्यबुद्धया परमनुभवनं तल्लयं याति योगी । तस्य स्यात्कर्मनाशस्तदनु शिवपदं च क्रमेणेति शुद्धचिद्रपोऽहं हि सौख्यं स्वभवमिह सदासन्न भव्यस्य नूनं ॥ १ ॥
अर्थः-जो योगी “ मैं शुद्धचिद्रूप हूँ'' ऐसा भले प्रकार अवण और श्रद्धान कर, वचन और मनसे उसे ही दृढ़ रूपसे धारण कर, अन्तरंगको स्थिर कर और उसे सर्वसे पर-सर्वोत्तम जानकर उसका ( शुद्धचिद्रूपका ) अनुभव और उसमें अनुराग करता है वह आसन्न भव्य-बहुत जल्दी मोक्ष जानेवाला योगी-क्रमसे समस्त कर्मोंका नाश कर अतिशय विशुद्ध मोक्षमार्ग और निराकुलतामय आत्मिक सुखका लाभ करता है ।
भावार्थ:--' मैं शुद्धचिद्रूप हूँ'-ऐसा बिना श्रद्धान और ज्ञान किए शुद्धचिद्रूपमें अनुराग नहीं हो सकता, अनुरागके बिना उसका अनुभव, अनुभव न करनेसे कर्मोका नाश, कर्मोका नाश न होनेसे मोक्षकी प्राप्ति और मोक्षकी प्राप्ति न होनेसे शांतिमय मुख कदापि नहीं मिल सकता ।। १ ।।
गृहिभ्यो दीयते शिक्षा पूर्व पट्कर्मपालने । व्रतांगीकरणे पश्चात्संयमग्रहणे ततः ॥ २ ॥ यतिभ्यो दीयते शिक्षा पूर्व संयमपालने । चिपचिंतने पश्चादयमुक्तो बुधैः क्रमः ॥ ३ ॥ अर्थः-जो मनुष्य गृहस्थ हैं उन्हें पहिले देवपूजा आदि
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