Book Title: Tattvagyan Tarangini
Author(s): Gyanbhushan Maharaj, Gajadharlal Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 177
________________ १७० ] | तत्त्वज्ञान तरंगिणी करनेसे कभी भी द्रव्य और भावसंसारका सम्बन्ध नहीं रह सकता ।। ८ ।। क्षण क्षणे विमुच्येत शुद्धचिद्रपचिंतया । तदन्यचिंतया नूनं बध्येतैव न संशयः ।। ९ ॥ अर्थ:--- यदि शुद्धचिद्रूपका चिन्तवन किया जायगा तो प्रतिक्षण कर्मोंसे मुक्ति होती चली जायगी और यदि परपदार्थाका चिन्तवन होगा तो प्रतिसमय कर्मबन्ध होता रहेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं ।। १ ।। सयोगक्षीणमिश्रेषु गुणस्थानेषु नो मृतिः । अन्यत्र मरणं प्रोक्तं शेपत्रिक्षपकैविना ।। १० ॥ अर्थः-सयोगकेवली. क्षीणमोह, मिश्र और क्षपकगुणस्थान आठवें, नवमें और दशमें मरण नहीं होता; परन्तु इनसे भिन्न गुणस्थानोंमें मरण होता है ।। १० ।। मिथ्यात्वेऽविरते मृत्या जीवा यांति चतुर्गतीः । सासादने विना श्वभ्रं तियंगादिगतित्रयं ॥ ११ ॥ अर्थः--जो जीव मिथ्यात्व और अविरत सम्यादृष्टि ( जिसने सम्यक्त्व होने से पहिले आयुबन्ध कर लिया हो) गुणस्थानोंमें मरते हैं, वे मनुष्य, तिर्यंच, देव, नरक चारों गतियोंमें और सासादन गुणस्थानमें मरनेवाले नरकगतिमें न जाकर शेप तिथंच आदि तीनों गतियोंमें जाते हैं ।। ११ ।। अयोगे मरणं कृत्वा भव्या यांति शिवालयं । मृत्वा देवगतिं यांति शेषेषु सप्तसु ध्रुवं ।। १२ ।। अर्थः-अयोगकेवली-चौदहवें-गुणस्थानसे मरनेवाले जीव मोक्ष जाते हैं और शेप सात गुणस्थानोंसे मरनेवाले देव होते हैं ।। १२ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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