Book Title: Tattvagyan Tarangini
Author(s): Gyanbhushan Maharaj, Gajadharlal Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 176
________________ अठारहवां अध्याय ] [ १६९ भावार्थः-शुद्धचिद्रूपमें लीनता होनेसे एक साथ समस्त कर्मोंका नाश और वास्तविक सुख प्राप्त होता है, इसलिए योगियोंको चाहिए कि समस्त प्रकारके विकल्पोंको छोड़कर शुद्धचिद्रूपमें ही अनुराग करें ।। ५ ।। अष्टावंगानि योगस्य यमो नियम आसनं । प्राणायामस्तथा प्रत्याहारो मनसि धारणा ॥ ६ ।। ध्यानश्चैव समाधिश्च विज्ञायैतानि शास्त्रतः । सदैवाभ्यसनीयानि भदन्तेन शिवार्थिना ॥ ७ ॥ युग्मं ॥ अर्थः- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठ अंग योगके हैं । इन्हींके द्वारा योगकी सिद्धि होती है, इसलिए जो मुनि मोक्षभिलाषी हैं,-~-समस्त कर्मोसे अपनी आत्माको मुक्त करना चाहते हैंउन्हें चाहिए कि शास्त्रसे इनका यथार्थ स्वरूप जानकर सदा अभ्यास करते रहें ।। ६-७ ।। भावान्मुक्तो भवेच्छुद्धचिद्रूपोहमितिस्मृतेः । यद्यात्मा क्रमतो द्रव्यात्स कथं न विधीयते ॥ ८ ॥ अर्थः-यह आत्मा “ मैं शुद्धचिद्रूप हूँ" ऐसा स्मरण करते ही जब भावमुक्त हो जाता है तब क्रमसे द्रव्यमुक्त तो अवश्य ही होगा । भावार्थः-शुद्धचिद्रूपके स्मरणमें जब इतनी सामर्थ्य है कि उस स्मरण मात्रसे ही भाव संसारसे छूटकर भाव मोक्ष प्राप्त करता है, तब यह परद्रव्य संसारका सम्बन्ध तो इस आत्मासे अवश्य ही दूर कर देगा । शुद्धचिद्रूपके स्मरण त. २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184