Book Title: Tattvagyan Tarangini
Author(s): Gyanbhushan Maharaj, Gajadharlal Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 178
________________ अठारहवाँ अध्याय ! शुद्धचिद्रपसद्धयानं कृत्वा यात्यधुना दिवं । तत्रेन्द्रियसुखं भुक्त्वा श्रुत्वा वाणीं जिनागतां ॥ १३ ॥ जिनालयेषु सर्वेषु गत्वा कृत्वार्चनादिकं । ततो लब्ध्वा नरत्वं च रत्नत्रय विभूषणं ॥ १४ ॥ शुद्धचिद्रूपसङ्ख्यानबलात्कृत्वा विधिक्षयं । सिद्धस्थानं परिप्राप्य त्रैलोक्यशिखरे क्षणात् ॥ १५ ॥ साक्षाच शुद्धचिद्रपा भृत्वात्यंतनिराकुलाः । तिष्ठत्यनंतकालं ते गुणाष्टक समन्विताः ॥ १६ ॥ [ १७१ अर्थ : -- इस समय भी जो जीव शुद्धचिद्रूपके ध्यान करने वाले हैं वे मरकर स्वर्ग जाते हैं और वहां भले प्रकार इन्द्रियजन्य सुखोंको भोगकर, भगवान जिनेन्द्र के मुखसे जिनवाणी श्रवणकर, समस्त जिनमन्दिरों में जा और उनकी पूजन आदि कर मनुष्यभव व सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान - सम्यक् चारित्रको प्राप्तकर, शुद्धचिद्रूपके ध्यानसे समस्त कर्मोंका क्षयकर सिद्धस्थानको प्राप्त होकर तीन लोकके शिखर पर जा विराजते हैं तथा वहां पर साक्षात् शुद्धचिद्रूप होकर अत्यन्त निराकुल और केवलदर्शन, केवलज्ञान, अव्याबाधमुख आदि आठों गुणोंसे भूपित हो अनन्तकालपर्यन्त निवास करते हैं ।। १३-१६ ।। क्रमतः क्रमतो याति कीटिका शुकवत्फलं । नगस्थं स्वस्थितं नाच शुद्धचिपचितनं ॥ १७ ॥ अर्थ: - जिस प्रकार कीड़ी ( चींटी ) क्रम क्रमसे धीरे फलका आस्वादन धीरे वृक्षके ऊपर चढ़कर शुकके समान करती है, उसी प्रकार यह मनुष्य भी क्रम-क्रमसे शुद्धचिद्रूपका चिन्तवन करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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