Book Title: Tattvagyan Tarangini
Author(s): Gyanbhushan Maharaj, Gajadharlal Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 179
________________ १७२ ] [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी भावार्थ:-जिस प्रकार कीड़ी एकदम तोतेके समान फल के पास जाकर उसका आस्वादन नहीं कर सकती ; किन्तु पृथ्वीसे वृक्षके मूल भाग पर चढ़कर धीरे-धीरे फलके पास पहुँचती है और पीछे उसके रसका स्वाद लेती है, उसी प्रकार शुद्धचिद्रूपका चितवन भी कोई मनुष्य एक साथ नहीं कर सकता; किन्तु क्रम-क्रमसे परद्रव्योंसे अपनी ममता दूर करता हुआ उसका चिन्तवन कर सकता है ।। १७ ।। गुर्वादीनां च वाक्यानि श्रुत्वा शास्त्राण्यनेकशः । कृत्वाभ्यासं यदा याति तद्वि ध्यान क्रमागतं ॥ १८ ॥ जिनेशागमनिर्यासमात्रं श्रुत्वा गुरोर्वचः । विनाभ्यासं यदा याति तद्ध्यानं चाक्रमागतं ॥ १९ ।। अर्थः-जो पुरुष-गुरु आदिके वचनोंको भले प्रकार श्रवणकर और शास्त्रोंका भले प्रकार अभ्यासकर शुद्ध चिद्रूपका चिन्तवन करता है, उसके क्रमसे शुद्धचिद्रपका चिन्तवन ध्यान कहा जाता है; किन्तु जो पुरुष भगवान जिनेन्द्र के शास्त्रोंके तात्पर्य मात्रको बतलानेवाले गुरुके वचनोंको श्रवणकर अभ्यास नहीं करता-बारबार शास्त्रोंका मनन चिन्तवन नहीं करताउसके जो शुद्धचिद्रूपका ध्यान होता है वह अक्रमागत ध्यान कहा जाता है ।। १८-१९ ।। न लाभमानकीर्त्यर्था कृता कृतिरियं मया । किंतु मे शुद्धचिद्रूपे प्रीतिः सेवाकारणं ॥ २० ॥ अर्थः-अन्त में ग्रन्थकार ग्रन्थके निर्माणका कारण बतलाते हैं कि यह जो मैंने ग्रन्थ बनाया है वह किसी प्रकारके लाभ, मान या कोर्तिकी इच्छासे नहीं बनाया; परन्तु शुद्धचिद्रूप में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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