Book Title: Tattvagyan Tarangini
Author(s): Gyanbhushan Maharaj, Gajadharlal Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 180
________________ अठारहवाँ अध्याय [ १७३ मेरा ( जो ) गाढ़ प्रेम है इसी कारण इसका निर्माण हुआ है ।। २० ।। जातः श्रीसकलादिकीर्तिमुनिपः श्रीमूलसंघेग्रणीस्तत्पट्टोदय पर्वते रविरभृद्भव्यांबुजानन्दकृत् । विख्यातो भुवनादिकीर्तिरथ यस्तत्पादकंजे रतः तत्त्वज्ञानतरंगिणीं स कृतवानेतां हि चिभूषणः ॥ २१ ॥ अर्थ :- मूल संघके आचार्यमें अग्रणी - सर्वोत्तम विद्वान आचार्य सकलादिकीर्ति हुये । उनके पट्टरूपी उदयाचल पर सूर्यके समान भव्यरूपी कमलोंको आनन्द प्रदान करनेवाले प्रसिद्ध भट्टारक भुवनादिकीर्ति हुये । उन्ही के चरण कमलोंका भक्त मैं ज्ञानभूषण भट्टारक हूँ जिसने कि इस तत्त्वज्ञानतरंगिणी ग्रन्थका निर्माण किया है ।। २१ ।। क्रीडति ये प्रविश्येनां तत्त्वज्ञानतरंगिणीं । ते स्वर्गादिसुखं प्राप्य सिद्धयंति तदनंतरं ॥ २२ ॥ अर्थः- जो महानुभाव इस तत्त्वज्ञानतरंगिणी ( तत्त्वज्ञानरूपी नदी ) में प्रवेशकर क्रीड़ा ( - अवगाहन ) करेंगे वे ( स्वर्ग आदिके सुखोंको भोगकर मोक्ष मुखको प्राप्त होंगे । स्वर्ग सुखके भोगनेके बाद उन्हें अवश्य मोक्ष सुखकी प्राप्ति होगी ) || २२ ।। यदैव विक्रमातीताः शतपंचदशाधिकाः । पष्टिः संवत्सरा जातास्तदेयं निर्मिता कृतिः ॥ २३ ॥ अर्थः - जिस समय विक्रम संवतके पन्द्रहसौ साठ वर्ष ( शक संवत् के चौदह सौ पच्चीस अथवा रख्रीष्ट संवतके पन्द्रह सौ तीन वर्ष ) बीत चुके थे, उस समय इस तत्त्वज्ञानतरंगिणीरूपी कृतिका निर्माण किया गया ।। २३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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