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सत्रहवाँ अध्याय |
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कर, चेतन, अचेतन और मिश्र तीनों प्रकारका परिग्रह छोड़कर, सद्गुरु, निर्दोष शास्त्र, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रस्वरूप रत्नत्रयका आश्रय कर दूसरे जीवोंका सहवास और राग-द्वेष आदिका सर्वथा त्यागकर सब उपद्रवोंसे रहित एकान्त स्थान में निवास करें ।
भावार्थ:-- जब तक संसार, शरीर और भोगोंसे ममत्व न हटेगा, स्वर्ण, रत्न, क्रोध, मान, स्त्री, पुत्र, दासी, दास आदि परिग्रहका त्याग नहीं होगा, श्रेष्ठ गुरु, निर्दोष शास्त्र और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रका आराधन नहीं किया जायगा, अन्य मनुष्योंका सहवास और रागादि दूर न कर दिए जायेगे और एकान्त स्थानमें निवास नहीं किया जायगा, तब तक निराकुलतामय सुख प्राप्त होना सर्वथा असंभव है, इसलिये जो मनुष्य इस सुखके अभिलापी हैं उन्हें चाहिए कि वे उपयुक्त वातों पर अवश्य ध्यान दें ।। ३ ।। खसुखं न सुखं नृणां किंत्वभिलाषाग्निवेदनाप्रतीकारः । सुखमेव स्थितिरात्मनि निराकुलत्वाद्विशुद्धपरिणामात् ॥ ४ ॥
अर्थ : - इन्द्रियजन्य सुख, सुख नहीं है; किन्तु मनुष्योंकी अभिलाषारूप अग्निजन्य वेदनाओंका नष्ट करनेका उपाय है और जो अपने चिदानन्दस्वरूप आत्मामें स्थितिका होना है, वह निराकुलतारूप और विशुद्ध परिणामस्वरूप होनेसे सुख ही है ।
भावार्थ:- जिस सुखसे हमारी अभिलाषा और वेदनायें नष्ट हों वही वास्तव में सुख है । इन्द्रियजन्य सुख, सुख नहीं कहा जा सकता; क्योंकि वह परिणाममें दुःख देनेवाला है और अभिलाषा तथा वेदनाओंका उत्पादक है, इसलिए उस
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