Book Title: Tattvagyan Tarangini
Author(s): Gyanbhushan Maharaj, Gajadharlal Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 164
________________ सत्रहवाँ अध्याय शुद्धचिद्रूपमें प्रेमवर्धनका उपदेश मुक्ताविद्रुमरत्नधातुरसभूवस्त्रानरुग्भूरुहां स्त्रीभाश्वाहिगवां नृदेवविदुपां पक्षांबुगानामपि । प्रायः संति परीक्षकाः भुवि सुखस्यात्यल्पका हा यतो दृश्यते खमवे रताश्च बहवः सौख्ये च नातींद्रिये ॥ १ ॥ अर्थः- इस संसार में मोती, मूंगा, रत्न, धातु, रस, पृथ्वी, वस्त्र, अन्न, रोग, वृक्ष, स्त्री, हाथी, घोड़े, सर्प, गाय, मनुष्य, देव, विद्वान, पक्षी और जलचर जीवोंकी परीक्षा करने वाले अनेक मनुष्य हैं । इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए ऐन्द्रियिक सुख में भी बहुतसे अनुरक्त हैं; परन्तु निराकुलतामय सुखकी परीक्षा और उसमें अनुराग करनेवाले बहुत ही थोड़े हैं । भावार्थ:- इस संसार में परीक्षा करनेवाले विद्वान पुरुषोंकी और सुखके अनुभव करनेवालोंकी कमी नहीं है; परन्तु वे यह नहीं समझते हैं कि हमें किस वातकी परीक्षा और कैसे सुखका अनुभव करना चाहिए ? बहुतसे मनुष्य मोती, मूगा, रत्न, स्वर्ण आदि धातु, उत्तमोत्तम रस, पृथ्वी, रोग, हाथी, अश्व आदि पदार्थोंकी परीक्षामें प्रवीण हैं । इन्द्रि यजन्य सुखोंका भी पूर्णतया अनुभव करना जानते हैं; परन्तु उनकी उस प्रकारकी परीक्षा और अनुभव कार्यकारी नहीं; क्योंकि ये सब पदार्थ अनित्य हैं । नित्य पदार्थ निराकुलतामय सुख है, इसलिए उसीकी परीक्षा और अनुभवसे कार्य और कल्याण हो सकता है ।। १ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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