________________
१६४ ]
मुंच सर्वाणि कार्याणि संगं चान्येव संगति । भो भव्य ! शुद्धचिद्रूपलये वांछास्ति ते यदि ॥ १४ ॥
[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी
अर्थ :- हे भव्य ! यदि तू शुद्धचिद्रूपमें लीन होकर जल्दी मोक्ष प्राप्त करना चाहता है तो तू सांसारिक समस्त कार्य, बाह्य-ग्रभ्यंतर दोनों प्रकारके परिग्रह और दूसरोंका सहवास सर्वथा छोड़ दे ।। १४ ।।
मुक्ते बाह्ये परद्रव्ये स्यात्सुखं चेच्चितो महत् । सांप्रतं किं तदादोऽतः कर्मादौ न महत्तरं ।। १५ ।।
अर्थः- -जब वाह्य परद्रव्यसे रहित हो जाने पर भी आत्माको महान् सुख मिलता है तब कर्म आदिके नाश हो जाने पर तो उससे भी अधिक महान् सुख प्राप्त होगा ।। १५ ।।
इन्द्रियैश्व पदार्थानां स्वरूपं जानतोंsगिनः । यो रागस्तत्सुखं द्वेषस्तद् दुःखं भ्रांतिजं भवेत् ॥ १ यो रागादिविनिर्मुक्तः पदार्थानखिलानपि । जानन्निराकुलत्वं यत्तात्त्विकं तस्य तत्सुखं ॥ १७ ॥
अर्थ :- इन्द्रियोंके द्वारा पदार्थोंके स्वरूप जाननेवाले इस जीवका जो उनमें राग होता है वह सुख और द्वेष होता है वह दुःख है यह मानना नितांत भ्रम है; किन्तु जो पुरुष राग और द्वेष आदिसे रहित है. समस्त पदार्थोंको जानते हुए भी समस्त प्रकारकी आकुलतासे रहित है- निराकुल है, वही वास्तविक सुख है ।
भावार्थ:- यह जीव स्त्री, पुत्र आदि परपदार्थो में कुछ राग होनेसे सुख और उनमें द्वेष हो जानेसे दुःख मानता है;
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org