________________
१६२ ।
ज्ञेयावलोकनं ज्ञानं सिद्धानां भविनां भवेत् । आद्यानां निर्विकल्पं तु परेषां सविकल्पकं ॥ ८ ॥
( दर्शन और
अर्थः- पदार्थोंका देखना और जानना होता है; परन्तु सिद्धों के संसारी जीवोंके सविकल्प
ज्ञान ) सिद्ध और संसारी दोनोंके वह निर्विकल्प - आकुलतारहित और आकुलतासहित होता है ॥ ८ ॥
तत्त्वज्ञान तरंगिणी
व्याकुलः सविकल्पः स्यान्निर्विकल्पो निराकुलः । कर्मबन्धोऽसुखं चाद्ये कर्माभावः सुखं परे ।। ९ ।।
अर्थ :- जिस ज्ञानकी मौजूदगी में आकुलता हो वह ज्ञान सविकल्पक और जिसमें आकुलता न हो वह ज्ञान निर्विकल्पक कहा जाता है । उनमें सविकल्प ज्ञानके होने पर क्रमका वन्ध और दुःख भोगना पड़ता है और निर्विकल्पक ज्ञानके होने पर कर्मोंका अभाव और परम सुख प्राप्त होता है ।। ९ ।।
बहून् वारान् मया भुक्तं सविकल्पं सुखं ततः । तनापूर्वं निर्विकल्पे सुखेऽस्तीहा ततो मम ॥ १० ॥
अर्थः – आकुलताके भंडार इस सविकल्पक सुखका मैंने बहुत वार अनुभव किया है । जिस गतिमें गया हूँ वहाँ मुझे सविकल्प ही सुख प्राप्त हुआ है, इसलिए वह मेरे लिए अपूर्व नहीं है; परन्तु निराकुलतामय-निर्विकल्पक सुख मुझे कभी प्राप्त नहीं हुआ, इसलिए उसीकी प्राप्ति के लिए मेरी अत्यन्त इच्छा है - वह कब मिले इस आशासे सदा मेरा चित्त भटकता फिरता है ।। १० ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org