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सत्रहवां अध्याय ।
अर्थ:- जो मनुष्य मोहों मूढ़ और परसमयमें रत हैंपर पदार्थोंको अपनानेवाले हैं । वे चाहे पुर, गांव, वन, पर्वतके अग्रभाग, समुद्र, नदी आदिके तट, मठ, गुफा, चैत्यालय, सभा, रथ, महल, किले, स्वर्ग, भूमि, मार्ग, आकाश, लतामण्डप
और तम्बू आदि स्थानोंमें किसी स्थान पर निवास करे, उसे निराकुलतामय मुख का कण तक प्राप्त नहीं हो सकता अर्थात् मोह और परद्रव्योंका प्रेम निराकुलतामयसुखका बाधक है ।।६।।
निगोते गूथकीटे पशुनृपतिगण भारवाहे किराते सरोगे मुक्तरोगे धनवति विधने वाहनस्थे च परे । युवादौ बालवृद्धे भवति हि खसुखं तेन किं यत् कदाचित सदा वा मर्वदेवैतदपि किल यतस्तन्न चाप्राप्तपूर्व ॥ ७ ॥
अर्थः- निगोदिया जीव, विष्टाका कीड़ा, पशु, राजा, भार वहन करनेवाले, भील, रोगी, नीरोगी, धनवान, निर्धन सवारी पर घूमनेवाले, पैदल चलनेवाले, युवा, बालक, वृद्ध
और देवोंमें जो इन्द्रियोंसे उत्पन्न मुख कभी होते हैं या कदाचित् सदा देखने में आता हो, उससे क्या प्रयोजन ? अथवा वह सर्वदा ही बना रहे तब भी क्या प्रयोजन ? क्योंकि वह पहिले कभी भी नहीं प्राप्त हुआ ऐसा निराकुलतामय सुख नहीं है ( अर्थात् इन्द्रियोंसे उत्पन्न मुख विनाशीक है और मुल भरूपमे कहीं न कहीं कुछ न कुछ अवश्य मिल जाता है; परन्तु निराकुलतामय सुख नित्य अविनाशी है और आत्माको विना विशुद्ध किए कभी प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिए इन्द्रिय सुख कैसा भी क्यों न हो वह कभी निराकुलतामय सुखकी तुलना नहीं कर सकता) ।। ७ ।। त. २१
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