Book Title: Tattvagyan Tarangini
Author(s): Gyanbhushan Maharaj, Gajadharlal Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 170
________________ सत्रहवाँ अध्याय । [ १६३ ज्ञेयज्ञानं सरागेणा चेतसा दुःखभंगिनः ।। निश्चयश्च विरागेण चेतसा सुखमेव तत् ॥ ११ ॥ अर्थः ---रागी, द्वेपी और मोही चित्तसे तो पदार्थोंका ज्ञान किया जाता है वह दुःख स्वरूप है-उस ज्ञान से जीवोंको दुःख भोगना पड़ता है और वीतराग, वीतद्वेष और वीतमोह चित्तम जो पदार्थोंका ज्ञान होता है, वह सुख स्वरूप है-उस ज्ञानसे मृग्व की प्राप्ति होती है । ११ ।। रवेः सुधायाः सुरपादपस्य चिंतामणरुत्तमकामधेनोः । दियो विदग्धस्य हरेरखर्च गर्व हरन भो विजयी चिदात्मा ॥१२।। अर्थ:-हे आत्मन् ! यह चिदात्मा, सूर्य, अमृत, कल्पवृक्ष, चिन्तामणि, कामधेनु, स्वर्ग, विद्वान और विष्णके अखंड गर्वको देखते देखते चूर करनेवाला है और विजयशील है । भावार्थ:-यह चिदात्मा दीप्तिमें सूर्यसे भी चढ़ बढ़कर है-महादीतिमान है, आनन्द प्रदान करने में अमृतको भी जीतनेवाला है, कल्पवृक्ष, चिन्तामणि और कामधेनुसे भी अधिक इच्छाओंको पूरण करनेवाला है । स्वर्गसे भी अधिक सुख देनेवाला, अपनी विद्वत्तासे विद्वानकी विद्वत्ता जीतनेवाला और विष्णुसे अधिक अखंड प्रतापका भंडार है ।। १२ ।। चिंता दुःखं सुखं शांतिस्तस्या एतत्प्रतीयते । तच्छांतिर्जायते शुद्धचिपे लयतोऽचला ॥ १३ ॥ अर्थः -जिस अचल शांतिसे संसार में यह मालूम होता हैं कि यह चिता है, यह दुःख है, यह मुख और शांति है -वह ( शांति ) इसी शुद्धचिद्रूप में लीनता प्राप्त करनेसे होती है । बिना शुद्धचिद्रूपमें लीनता प्राप्त किए चिन्ता, दुःख आदिके अभावके स्वरूपका ज्ञान नहीं हो सकता ।। १३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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