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बाहवाँ अध्याय । करना प्रभावना अंग है । जो महानुभाव इन आठों अंगोंके साथ साथ सम्यग्दर्शन धारण करता है, उसे मोक्षकी अवश्य प्राप्ति होती है ।। १० ।।
अष्टधाचारसंयुक्तं ज्ञानमुक्तं जिनेशिना । व्यवहारनयात् सर्वतत्त्वोद्धासो भवेद् यतः ॥ ११ ॥ स्वस्वरूपपरिज्ञानं तज्ज्ञानं निश्चयाद् वरं । कर्मरेणूच्चये बातं हेतुं विद्धि शिवश्रियः ॥ १२ ॥
अर्थः-भगवान जिनेन्द्रने व्यवहारनयसे आठ प्रकारके आचारोंसे युक्त ज्ञान दतलाया है और उससे समस्त पदार्थोका भलीप्रकार प्रतिभास होता है; परन्तु जिससे स्वस्वरूपका ज्ञान हो, (जो शुद्धचिद्रूपको जाने ) वह निश्चय सम्वग्ज्ञान हैं । यह निश्चय सम्यग्ज्ञान समस्त कर्मोका नाशक है और मोक्षरूपी लक्ष्मीकी प्राप्तिमें परम कारण हैं, इससे मोक्ष सुख अवश्य प्राप्त होता है ।। ११-१२ ॥
यदि चिद्र पेऽनुभवो मोहाभावे निजे भवेत्तत्त्वात् । तत्परमज्ञानं स्याद् बहिरंतरसंगमुक्तस्य ॥ १३ ॥
अर्थः-मोहके सर्वथा नाश हो जाने पर बाह्य अभ्यंतर दोनों प्रकारके परिग्रहोंसे रहित पुरुषका जी आत्मिक शुद्धचिद्रूपका अनुभव करता है, वही वास्तविकरूपसे परम जान है ।। १३ ।।
निवृत्तिर्यत्र सावद्यात् प्रवृत्तिः शुभकर्मसु ।। त्रयोदशप्रकारं तच्चारित्रं व्यवहारतः ॥ १४ ॥
अर्थः-जहाँ पर सावध हिंसाके कारणरूप पदार्थोंसे निवृत्ति और शुभकार्यमें प्रवृत्ति हो उसे व्यवहारचारित्र कहते हैं और वह तेरह प्रकारका है ।
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