Book Title: Tattvagyan Tarangini
Author(s): Gyanbhushan Maharaj, Gajadharlal Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 143
________________ १३६ । [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी सारी व्याधियां शरीर में होती हैं मेरे शुद्धचिद्रूपमें नहीं और शरीर मुझसे सर्वथा भिन्न है-रंचमात्र भी दुःखका अनुभव नहीं करता ।। १४ ।।। बुभुक्षया च शीतेन वातेन च पिपासया । आतपेन भवेन्नातों निजचिपचिंतनात् ॥ १५ ॥ अर्थः-आत्मिक शुद्धचिद्रूपके चिन्तवनसे मनुष्यको भूख, ठंड, पवन, प्यास और आतापकी भी बाधा नहीं होती । ( भूख आदिकी बाधा होने पर भी वह आनन्द ही मानता हर्षों न जायते स्तुत्या विषादो न स्वनिंदया । स्वकीयं शुद्धचिद्रपमन्यहं स्मरतोऽगिनः ॥ १६ ॥ अर्थः-जो प्रतिदिन स्वकीय शुद्धचिद्रूपका स्मरण ध्यान करता है उसे दूसरे मनुष्योंसे अपनी स्तुति सुनकर हर्ष नहीं होता और निन्दा सुनकर किसी प्रकारका विपाद नहीं होतानिन्दा स्तुति दोनों दशामें वह मध्यस्थरूपसे रहता है ।।१६।। रागद्वेषौ न जायेते परद्रव्ये गतागते । शुभाशुर्भेऽगिनः शुद्धचिद्रपासक्तचेतसः ।। १७ ।। अर्थः-जिस मनुष्यका चित्त शुद्धचिद्रूपमें आसक्त है वह स्त्री, पुत्र आदि परद्रव्यके चले जाने पर द्वेष नहीं करता और उनकी प्राप्तिमें अनुरक्त नहीं होता तथा अच्छी-बुरी बातोंके प्राप्त हो जाने पर भी उसे किसी प्रकारका रागद्वेष नहीं होता ।। १७ ।। न संपदि प्रमोदः स्यात् शोको नापदि धीमतां । अहो स्विन्सर्वदात्मीयशुद्धचिद्रपचेतसां ॥ १८ ॥ अर्थः-सदा निज शुद्धचिद्रूपमें मन लगानेवाले बुद्धिमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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