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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी
अर्थः - देखो ! इस बुद्धिशून्य जीवको समझदारी ! जो धन, गाय, स्त्री, पुत्री, अश्व, घर, वस्त्र, रथ, क्षेत्र, दासी, हाथी, शिष्य, कपूर, आभूषण, दुकान, वन, पालकी, बन्धु, मित्र, आयुध, मांच ( पलंग ) बावड़ी, मृत्य, छत्र, पक्षी, सूर्य, भाजन और आसन आदि पदार्थ दुःखके कारण हैं, जिन्हें अपनाने से जरा भी सुख नहीं मिलता । उन्हें यह सुखके कारण मानता है । अपने मान रात दिन उनको प्राप्त करनेके लिये प्रयत्न करता रहता है ।। ५ ।।
हंस ! स्मरसि द्रव्याणि पराणि प्रत्यहं यथा । तथा चेत् शुद्धचिद्रपं मुक्तिः किं ते न हस्तगा ॥ ६ ॥
अर्थः- हे आत्मन् ! जिस प्रकार प्रतिदिन तूं परद्रव्यों का स्मरण करता है, स्त्री, पुत्र, आदिको अपना मान उन्हीं की चितामें मग्न रहता है, उसीप्रकार यदि तूं शुद्धचिद्रूपका भी स्मरण करे - उसीके ध्यान और चिन्तवनमें अपना समय व्यतीत करे तो क्या तेरे लिये मोक्ष समीप न रह जाय ? अर्थात् तू बहुत शीघ्र हो मोक्ष सुखका अनुभव करने लग जाय ।। ६ ।। लोकस्य चात्मनो यत्नं रंजनाय करोति यत् । तच्चेन्निराकुलत्वाय तर्हि दूरे न तत्पदं ॥ ७ ॥
अर्थः - जिस प्रकार यह जीव अपने और लोकके रंजायमान करनेके लिये प्रतिदिन उपाय करता रहता है, उसी प्रकार यदि निराकुलतामय - मोक्ष सुखकी प्राप्ति के लिये उपाय करे तो वह मोक्ष स्थान जरा भी उसके लिये दूर न रहे - बहुत जल्दी प्राप्त हो जाय ॥ ७ ॥
रंजने परिणामः स्याद् विभावो हि चिदात्मनि । निराकुले स्वभावः स्यात् तं विना नास्ति सत्सुखं ॥ ८ ॥
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