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पन्द्रहवाँ अध्याय ]
[ १४१ करना पड़ता है, इसलिये जो जीव निराकुलतामय सुखके अभिलाषी हैं उन्हें चाहिये कि वे शरीर आदि पर्यायोंका चितवन करना छोड़ दें और आत्मिक शुद्धचिद्रूपमें प्रेम करें ॥३॥ स्वर्णरत्नैहैः स्त्रीसुतरथशिविकाश्वेभभृत्यैरसंख्यैभूषावस्त्रैः स्रगाथैर्जनपदनगरैश्वामरैः सिंहपीठैः । छत्रैरविचित्रैर्वरतरशयनैर्भाजनैभॊजनैश्च लब्धैः पांडित्यमुख्यैर्न भवति पुरुषो व्याकुलस्तीत्रमोहात् ।। ४ ।।
अर्थः—यह पुरुष मोहकी तीव्रतासे आकुलताके कारणस्वरूप भी स्वर्ण, रत्न, घर, स्त्री, पुत्र, रथ, पालकी, घोड़े, हाथी, मृत्य, भूषण, वस्त्र, माला, देश, नगर, चमर, सिंहासन, छत्र, अस्त्र, शयन, भोजन और विद्वत्ता आदिसे व्याकुल नहीं होता ।
भावार्थः -- जहां चित्तको आकुलता नहीं रहती, वही शांति मिलती है । स्वर्ण, रत्न, घर, स्त्री आदि पदार्थोकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें चित्त सदा व्याकुल बना रहता है, इसलिए उनको अपनानेसे आत्मा निराकुल नहीं हो सकता; परन्तु यह जीव मोहकी तीव्रतासे ऐसा मूढ़ हो रहा है कि स्वर्ण, स्त्री, पुत्र आदि पदार्थों के अपनानेसे अनन्त कष्ट भोगने पर भी यह जरा भी कष्ट नहीं मानता, उनसे रत्तीभर भी इसका चित्त व्याकुल नहीं होता ।। ४ ।।
रैगोभार्याः सुतावा गृहवसनरथाः क्षेत्रदासीभशिष्याः कर्पूराभूषणाद्यापणवनशिविका वन्धुमित्रायुधाद्याः । मंचा वाप्यादि भृत्यातपहरणखगाः सूर्यपात्रासनाद्याः दुःखानां हेतवोऽमी कलयति विमत्तिः सौख्यहेतून किलतान् ॥५॥
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