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पन्द्रहवा अध्याय ]
[ १४३ अर्थः-अपने और परके रंजायमान करनेवाले चिदात्मा में जो जीवका परिणाम लगता है वह तो विभावपरिणाम ही है और निराकुल शुद्धचिद्रूपमें जो लगता है वह स्वभावपरिणाम है तथा इस परिणामसे ही सच्चे सुख की प्राप्ति होती हैउसके बिना कदापि सच्चा सुख नहीं मिल सकता ।। ८ ।।
संयोगविप्रयोगौ च रागद्वेपौ सुखासुखे । तद्भवेऽत्रभवे नित्यं दृश्येते तद् भवं त्यज ॥ ९ ॥
अर्थः--क्या तो यह भव और क्या पर भव ? दोनों भवोंमें जीवको संयोग, वियोग, रागद्वेष और सुख-दुःखका सामना करना पड़ता है, इसलिये हे आत्मन् ! तू इस संसारका त्याग कर दे ।
भावार्थः- इप्ट स्त्री-पुत्र आदिसे मिलाप होना संयोग है और उनसे जुदाईका नाम वियोग है । पर पदार्थोंसे प्रेम करना राग और वैर रखना द्वेष है । इष्ट पदार्थों के सम्बन्धसे आत्मामें कुछ शांति होना सुख और अशांतिका होना दुःख है । ये सब बातें इस भव-परभव दोनों भवोंमें प्रत्यक्ष देखने में आती हैं और इनके सम्बन्धसे सदा परिणामोंमें विकलता बनी रहती है इसलिये हे आत्मन् ! यदि तू निराकुलतामय सुख का अनुभव करना चाहता है तो तूं उसके मूल कारण संसारका ही सर्वथा त्याग कर दे-मोक्ष स्थानको अपना धर बना ।। ९ ।।
शास्त्राद् गुरोः सधर्मादेनिमुत्पाद्य चात्मनः । तस्यावलम्बनं कृत्वा तिष्ठ मुंचान्यसंगतिं ॥ १० ॥
अर्थः-शास्त्र, सद्गुरु और साधर्मी भाइयोंसे अपनी आत्माका वास्तविक स्वरूप पहिचानकर उसी ( आत्मा )का
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