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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी हैं । प्रतिक्षण सबकी पर्यायें बदलती रहती हैं । आत्माका भी ज्ञान दर्शन आदि चेतनाओंका प्रति समय परिवर्तन हुआ करता है, इसलिये जो जीव त्रिकालवर्ती अपने समस्त शुद्धचिद्रूपको एक साथ जानता देखता है, वास्तव में वही सम्यग्दृष्टि है ।।९।।
ज्ञात्वाष्टांगानि तस्यापि भाषितानि जिनागमे । तैरमा धार्यते तद्वि मुक्तिसौख्याभिलाषिणा ।। १० ।।
अर्थः--जो महानुभाव मोक्ष सुखके अभिलाषी हैं । मोक्षकी प्राप्तिसे ही अपना कल्याण समझते हैं वे जैनशास्त्र में वर्णन किये गये सम्यग्दर्शनको उसके आठ अंगोंके साथ धारण करते हैं !
भावार्थः-तत्त्वोंका स्वरूप यही है और ऐसा ही है, भगवान जिनेन्द्रने जो कुछ उनके विषयमें कहा है उससे अन्यथा नहीं हो सकता । इस प्रकार जैन शास्त्र और जिन भगवानमें जो गाढ़ रुचि रखना है, वह निःशंकितांग है । देव
और मनुष्यके भवके सुख को पापका कारण जान उसके लिये लालसा प्रकट न करना निःकांक्षितअंग है । महा अपवित्र इस शरीरसे निकलते हुये रुधिर आदिको देखकर ग्लानि न करना, दूसरोंको रुग्ण देख उनसे मुख न मोड़ना निर्विचिकित्सा अंग है । मिथ्यामार्ग व उनके भक्तोंसे किसी प्रकारका धार्मिक सम्बन्ध न रखना, उनके मिथ्यात्वकी अपने मुखसे प्रशंसा न करना अमढ़दृष्टि अंग है । यदि कोई अज्ञानी पवित्र जैनमार्गकी निन्दा करे तो उसके दूर करनेका उपाय करना उपगृहन अंग है । सम्यग्दर्शन आदिसे विचलित मनुष्यको पुनः सम्यग्दर्शन आदिमें दृढ़ कर देना स्थितिकरण अंग है । सहधर्मी भाइयोंमें गौ-बछड़ेके समान प्रीति रखना वात्सल्य अंग है । जैनमार्गके अतिशय प्रकट करनेके लिये विद्यालय खोलना आदि उपाय
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