Book Title: Tattvagyan Tarangini
Author(s): Gyanbhushan Maharaj, Gajadharlal Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 139
________________ १३२ । [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी ... भावार्थः-चिद्रूपका स्मरण करना संसारमें अतिशय कठिन है; क्योंकि जो मनुष्य मन, वचन और कायसे वैरागी, स्त्री पुत्र आदिमें ममत्व न रखनेवाला, बाह्य-अभ्यंतर दोनों प्रकारके परिग्रहोंका त्यागी, तत्त्वोंके जानकार गुरुओंका उपासक, परम संयमी, समस्त शास्त्रोंका वेत्ता, निर्जन और निरुपद्रव वनोंमें निवास करनेवाला, सब प्रकारकी चिन्ताओंसे रहित, शुभ आसन, पदस्थ आदि ध्यान और समताका अवलंबी होगा एवं जिसका मन वा ह्य पदार्थों में चंचल न होकर निश्चल होगा वही शुद्धचिद्रूपका स्मरण कर सकेगा तथा ऐसे शुद्धचिद्रूपके स्मरण करनेवाले पुरुषके ही समस्त पापोंका नाश, सर्वोत्तम धर्मकी वृद्धि और मोक्षका लाभ होगा, इसलिये सुखके अभिलाषी जीवोंको चाहिये कि वे उपर्युक्त बातोंके साधन मिलाकर शुद्धचिद्रूपके स्मरणका अवश्य प्रयत्न करें ।। ४-७ ।। वार्वाताग्न्यमृतोषवज्रगरुडज्ञानौषधभारिणा सूर्येण प्रियभाषितेन च यथा यांति क्षणेन क्षयं । अग्न्यब्दागविषं मलागफणिनोऽज्ञानं गदेभवजाः रात्रिवरैमिहावनावघचयश्चिद्रूपसंचिंतया ॥ ८ ॥ अर्थः-जिस प्रकार जल अग्निका क्षय करता है, पवन मेघका, अग्नि वृक्षका, अमृत विषका, खार मैलका, वज्र पर्वतका, गरुड़ सर्पका, ज्ञान अज्ञानका, औषध रोगका, सिंह हाथियोंका, सूर्य रात्रिका और प्रिय भापण वैरका नाश करता है, उसी प्रकार शुद्धचिद्रूपके चिन्तवन करनेसे समस्त पापोंका नाश होता है । भावार्थ:-जिन जिनका आपसमें विरोध होता है उनमें बलवान विरोधी दूसरे निर्बल विरोधीका अवश्य नाश करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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