Book Title: Tattvagyan Tarangini
Author(s): Gyanbhushan Maharaj, Gajadharlal Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 140
________________ चौदहवां अध्याय ]. [१३३ है । जल अग्नि, पवन मेघ, अग्नि वृक्ष, अमृत विप, खार मैल, वज्र पर्वत, गरुड़ सर्प, ज्ञान अज्ञान, औषध रोग, सिंह हाथी, सूर्य रात्रि और प्रिय भाषण वैरका आपसमें विरोध है । बलवान जल आदि अग्निको नष्ट कर देते हैं, उसीप्रकार शुद्धचिद्रूप और पापोंका आपसमें विरोध है, इसलिये शुद्धचिद्रूपके सामने पाप जरा भी टिक नहीं सकते ।। ८ ।। बर्द्धते च यथा मेघात्पूर्व जाता महीरुहाः । तथा चिद्रूपसद्धयानात् धर्मश्चाभ्युदयप्रदः ।। ९ ।। अर्थः-जिस प्रकार पहिलेसे उगे हुए वृक्ष, मेघसे जलसे वृद्धिको प्राप्त होते हैं, उसीप्रकार शुद्धचिद्रूपके ध्यानसे धर्म भी वृद्धिको प्राप्त होता है और नाना प्रकारके कल्याणोंको प्रदान करता है । भावार्थः-धर्म आत्माका स्वभाव है । सिवाय आत्माके वह कभी किसी कालमें दूसरे पदार्थों में रह नहीं सकता; किन्तु कर्मोके प्रबल पर्दाके पड़ जानेसे उसका स्वरूप कुछ ढक जाता है-धर्माचरण करने में मनुष्योंके परिणाम नहीं लगते; परन्तु जिस प्रकार जमीनमें पहिलेसे ही उगे हुये वृक्ष मेघकी सहायतासे वृद्धिको प्राप्त हो जाते हैं और नाना प्रकारके फलोंको प्रदान करते हैं, उसीप्रकार शुद्धचिद्रूपके ध्यानके द्वारा कर्मोंके नष्ट हो जानेसे धर्म भी वृद्धिको प्राप्त हो जाता है और उससे जीवोंको अनेक प्रकारके कल्याणोंकी प्राप्ति होती है ।। ९ ।। यथा बलाहकवृष्टेर्जायते हरितांकुराः । तथा मुक्तिप्रदो धर्मः शुद्धचिद्रपचिंतनात् ॥ १० ॥ अर्थः-जिस प्रकार मेघसे भूमिके अन्दर हरे हरे अंकुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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