Book Title: Tattvagyan Tarangini
Author(s): Gyanbhushan Maharaj, Gajadharlal Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 124
________________ बारहवाँ अध्याय 1 [ ११७ और सम्यरज्ञानके केवल सम्यकचारित्रसे ही मोक्ष सुख मिल जाय तो यह कभी नहीं हो सकता; किंतु सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके साथ रहनेवाले सम्यक्चारित्रसे ही मोक्ष सुख मिल सकता है, इसलिये ऐसा चारित्र ही सज्जनोंका परम आदरणीय और जगत्पूज्य है ।। १७ ।।। शुद्धे स्वे चित्स्वरूपे या स्थितिरत्यंतनिश्चला । तच्चारित्रं परं विद्धि निश्चयात कर्मनाशकृत् ॥ १८ ॥ अर्थः -- आत्मिक शुद्धस्वरूपमें जो निश्चलरूपसे स्थिति है, उसे निश्चयनयसे श्रेष्ठ चारित्र व कर्म नाश करना, तू जान ।। १८ ।। यदि चिद्रपे शुद्धे स्थितिनिजे भवति दृष्टिबोधबलात् । परद्रव्या स्मरणं शुद्धनयादंगिनो वृत्तं ।। १९ ॥ अर्थः--यदि इस जीवकी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके बलसे शुद्धचिद्रूपमें निश्चल रूपसे स्थिति होती है, तब पर द्रव्योंका विस्मरण वह शुद्धनिश्चयनयसे चारित्र समझना चाहिये । भावार्थ:-जब तक शुद्धचिद्रूप में निश्चलरूपसे स्थिति नहीं होती और पर पदार्थोसे प्रेम नहीं हटता तब तक कदापि निश्चय चारित्रकी प्राप्ति नहीं हो सकती, इसलिये निश्चय चारित्रकी प्राप्तिके अभिलाषी विद्वानोंको चाहिये कि वे शुद्धचिद्रूपमें निश्चलरूपसे स्थिति करें और पर पदार्थोसे प्रेम हटावें ।। १९ ॥ रत्नत्रयं किल ज्ञेयं व्यवहारं तु साधनं । सद्भिश्च निश्चयं साध्यं मुनीनां सद्विभूषणं ॥ २० ॥ अर्थः --निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्तिमें व्यबहाररत्नत्रय साधन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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