Book Title: Tattvagyan Tarangini
Author(s): Gyanbhushan Maharaj, Gajadharlal Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 133
________________ १२६ ] [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी विशुद्धश्चित्स्वरूपे स्यात् स्थितिस्तस्या विशुद्धता । तयोरन्योन्यहेतुत्वमनुभूय प्रतीयतां ।। १८ ।। अर्थः -- विशुद्धि होनेसे शुद्धचिद्रूप में स्थिति होती है और विशुद्धचिद्रूप में निश्चल रूपमे स्थिति करनेसे विशुद्धि होती है, इसलिये इन दोनोंको आपस में एक दूसरेका कारण जानकर इनका वास्तविक स्वम्हप जान लेना चाहिये । भावार्थ:-जब तक विशुद्धता नहीं होती तब तक शुद्ध चिद्रूप में स्थिति नहीं हो सकती; और जब तक शुद्धचिद्रूपमें स्थिति नहीं होती तब तक विशुद्धता नहीं आ सकती, इसलिये विद्वानोंको चाहिये कि इनमें एक दूसरेको आपसमें कारण जानकर इन दोनोंके स्वरूपको जानने के लिये पूर्ण उद्यम करे ।। १८ ।। विशुद्धिः परमो धर्मः पुंसि सैव सुखाकरः । परमाचरणं सैव मुक्तेः पंथाश्च सैव हि ॥ १९ ।। तस्मात् सैव विधातव्या प्रयत्नेन मनीषिणा । प्रतिक्षणं मुनीशेन शुद्धचिपचिंतनात् ॥ २० ॥ अर्थः ---यह विशुद्धि ही संसार में परम धर्म है, यही जीवोंका सुखका देनेवाला, उत्तम चारित्र और मोक्षका मार्ग है इसलिये जो मुनिगण विद्वान हैं-जड़ और चतनके स्वरूपके वास्तविक जानकार हैं उन्हें चाहिये कि वे शुद्धचिद्रूपके चितवनसे प्रयत्नपूर्वक विशुद्धि की प्राप्ति करें । भावार्थः-- बिना शुद्धचिद्रपके चिन्तवनके विशुद्धिकी प्राप्ति होना असंभव है, इसलिये विद्वान मुनिगणोंकी इसकी प्राप्तिके लिगे शुद्धचिद्रूपका चिन्तवन करना चाहिये ; क्योंकि यह विशुद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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