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। तत्त्वज्ञान तरंगिणी रहते हैं । इसी मोहके फंदेमें फंसकर परद्रव्योंकी चितामें व्यग्र हो मैंने बहुतसे काल तक इस संसार में भ्रमण किया और मेरे पीछे और भी बहुतसे जीव घूमते रहे; परन्तु इस संसार में ऐसे भी बहुतसे मनुष्य हैं जिन्होंने मोहको सर्वथा निर्मूल कर दिया है और समस्त परद्रव्योंसे सर्वथा ममत्व छोड़कर आत्मिक शुद्धचिद्रूपमें चित्त स्थिर किया है, इसलिथे अब मैं ऐसे ही महापुरुषोंकी शरण लेना चाहता हूँ । इन्हींकी शरणमें जानेसे मेरा कल्याण होगा ।। १३ ।।।
हित्वा यः शुद्धचिद्रूपस्मरणं हि चिकीर्षति । अन्यत्कार्यमसौ चिंतारत्नमश्मग्रहं कुधीः ।। १४ ॥
अर्थः-जो दुबुद्धि जीव शुद्धचिद्रूपका स्मरण न कर अन्य कार्य करना चाहते हैं वे चितामणि रत्नका त्यागकर पाषाण ग्रहण करते हैं ऐसा समझना चाहिये ।। १४ ।।
स्वाधीनं च सुखं ज्ञानं परं स्यादात्मचिंतनात् । तन्मुक्त्वाः प्राप्तुमिच्छंति मोहतस्तद्विलक्षणं ॥ १५ ॥
अर्थः- इस आत्माके चिन्तवनसे-शुद्धचिद्रूपके ध्यानसे निराकुलतारूप सुख और उत्तम ज्ञानकी प्राप्ति होती है; परंतु मूढ़ जीव मोहके वश होकर आत्माका चिन्तवन करना छोड़ देते हैं और उससे विपरीत कार्य 'जो कि अनन्त क्लेश देनेवाला है' करते हैं ।। १५ ।।
यावन्मोहो बली पुंसि दीर्घसंसारतापि च । न तावत् शुद्धचिद्रूपे रुचिरत्यंतनिश्चला ॥ १६ ।।
अर्थः -जब तक आत्मामें महा बलवान मोह है और दीर्घसंसारता चिरकाल तक संसार में भ्रमण करना बाकी है
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