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ग्यारहवाँ अध्याय ।
[ १०३ प्रतिमा दान, उत्सव और तीथों को यात्राके करने में प्रवीण हैं, नाना शास्त्रके जानकार, परिपहोंके सहन करनेवाले, परोपकार में रत, समस्त प्रकारके परिग्रहोंसे रहित और तपस्वी भी हैं; परन्तु रागद्वेष और मोहके सर्वथा नाश करनेवाले एवं शुद्धचिद्रूपरूपी तत्त्वमें लीन बहुत ही थोड़े हैं ।। २ ।।
गणकचिकित्सकतार्किकपौराणिकवास्तु शब्दशास्त्रज्ञाः । संगीतादिषु निपुणाः सुलभा न हि तत्त्ववेत्तारः ।। ३ ॥
__ अर्थः--ज्योतिषी, वैद्य, तार्किक, पुराणके वेत्ता, पदार्थ विज्ञानी, व्याकरशास्त्रके जानकार और संगीत आदि कलाओंमें भी प्रवीण बहुतसे मनुष्य हैं; परन्तु तत्त्वोंके जानकार नहीं ।। ३ ।।
सुरूपवललावण्यधनापत्यगुणान्विताः । गांभीर्यधैर्यधौरेयाः संत्यसंख्या न चिद्रताः ॥ ४ ।।
अर्थः-उत्तम रूप, बल, लावण्य, धन, संतान और गुणोंसे भी बहुतसे मनुष्य भूपित हैं, गंभीर, धीर और बीर भी असंख्यात हैं; परन्तु शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिमें लीन बहुत ही कम मनुष्य हैं ।। ४ ।।
जलधूतवनस्त्रीवियुद्धगोलकगीतिषु । क्रीडतोऽत्र विलोक्यंते घनाः कोऽपि चिदात्मनि ॥ ५ ॥
अर्थः- अनेक मनुष्य जलक्रीड़ा, जुआ, बन बिहार, स्त्रियोंके विलास, पक्षियोंके युद्ध, गोलीमार क्रीड़ा और गायन आदिमें भी दत्तचित्त दिखाई देते हैं; परन्तु चिदात्मामें विहार करनेवाला कोई विरला ही दिखता है ।। ५ ।।
सिंहसर्पगजव्याघ्राहितादीनां वशीकृतौ । रताः संत्यत्र बहवो न ध्याने स्वचिदात्मनः ॥ ६ ॥
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