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ग्यारहवाँ अध्याय शुद्धचिद्रपके सचिवन्तकी विरलताका वर्णन शांताः पांडित्ययुक्ता यमनियमबलत्यागरैवृत्तवन्तः । सद्गोशीलास्तपोर्चानुतिनतिकरणा मौनिनः संत्यसंख्याः । श्रोतारश्चाकृतज्ञा व्यसनखजयिनोऽत्रोपसर्गेऽपिधीराः निःसंगाः शिल्पिनः कश्चन तु विरलः शुद्धचिद्रपः ॥ १ ।।
अर्थः -- यद्यपि संसार में शांतिचित्त, विद्वान, यमवान, नियमवान, बलवान, धनवान, चारित्रवान् , उत्तमवक्ता, शीलवान् , तप, पूजा, स्तुति और नमस्कार करनेवाले, मौनी, श्रोता, कृतज्ञ, व्यसन और इन्द्रियोंके जीतने वाले, उपसर्गोके सहने में धीरवीर, परिग्रहोंसे रहित और नाना प्रकारकी कलाओंके जानकर असंख्यात् मनुष्य हैं; तथापि शुद्धचिद्रूपके स्वरूप में अनुरक्त कोई एक विरला ही है ।
__ भावार्थः --यह संसार नाना प्रकारके जीवोंका स्थान है । इसमें बहुतसे मनुष्य शांतचित्त हैं, तो बहुतसे विद्वान हैं, बहुतसे यमवान् , नियमवान् , बलवान, दानवान, धनवान और चरित्रवान् हैं । अनेक उत्तमवक्ता, शीलवान, तप, पूजा, स्तुति और नमस्कार करनेवाले भी हैं, बहुतसे मौनी, श्रोता आदि भी हैं; परन्तु शुद्धचिद्रूपके स्वरूप में लीन बहुत ही कम हैं ।। १ ।।
ये चैत्यालयचैत्यदानमहसद्यात्रा कृतौ कौशला नानाशास्त्रविदः परीषहसहा रक्ताः परोपकृतौ । निःसंगाश्च तपस्विनोपि बहबस्ते संति ते दुर्लभा रागद्वेषविमोहवर्जनपराश्चित्तत्त्व लीनाश्च ये ॥ २ ॥ अर्थः ----संसार में अनेक मनुष्य जिनमंदिरोंका निर्माण
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