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ग्यारहवाँ अध्याय !
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भावार्थ:-संसार में मनुष्य भिन्न-भिन्न प्रकृतियोंके हैं और उन्हें प्रीति उत्पन्न करनेवाले पदार्थ भी भिन्न भिन्न हैं । अनेक मनुष्य ऐसे हैं जो इत्र, फुलेल आदि सुगंधित पदार्थोंको ही प्रिय और उत्तम मानते हैं । बहुतों को छोटे भाई, पुत्र, पुत्री, स्त्री, पिता, माता, गांव, घर इन्द्रियोंके भोग, पर्वत, नगर, पक्षी, सवारी, राजाके कार्य, खाने योग्य पदार्थ, वन, व्यसन, खेती, कूप और तालाब अति प्यारे लगते हैं । बहुतसे भृत्योंको जहां-तहां भेजना यश प्राप्ति और पशुगणोंकी रक्षाको ही अति प्रिय मानते हैं; परन्तु शुद्धचिद्रूपमें किसीका भी प्रेम नहीं है, इसलिए बाह्य पदार्थों में व्यर्थ मुग्ध होकर आत्मिक शुद्धचिद्रूपकी ओर जरा भी ध्यान नहीं देते ।। २२ ।। इति मुमुक्षुभट्टारक श्री ज्ञानभूषणविरचितायां तत्त्वज्ञानतरंगिण्यां शुद्धचिद्रपासको विरल इतिप्रतिपादक एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
इस प्रकार मोक्षाभिलाषी भट्टारक ज्ञानभूषण द्वारा निर्मित तत्त्वज्ञान तरंगिणीमें “शुद्धचिपके प्रेमी बिरले ही हैं" इस बातको प्रतिपादन करनेवाला ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ || १ १ ॥
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