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।' तत्त्वज्ञान तरंगिणी __ अर्थः - मिथ्यात्ब गुणस्थानसे लेकर अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थान पर्यन्त जोव कभी भी शुद्धचिद्रूपके ध्यानी और व्रती नहीं हो सकते; किन्तु देशविरत पंचम गुणस्थानसे लेकर अयोग केवली नामक चौदहवें गुणस्थान पर्यन्तके जीव हो शुद्धचिद्रूपके ध्यानी और व्रती होते हैं, इसलिए शुद्धचिद्रूपका ध्यान और व्रतोंका ज्ञान बहुत थोड़े जीवोंमें है ।
भावार्थ:-मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरतको आदि लेकर अयोगकेवलीपर्यन्त चौदह गुणस्थान हैं । उनमें आदिके चार गुणस्थानवर्ती जीवोंके न तो शुद्धचिद्रूपमें लीनता हो सकती है और न वे किसी प्रकारके व्रत ही पाल सकते हैं; क्योंकि चौथे गुणस्थानमें आकर केवल श्रद्धान ही होता है; परन्तु पाँचवेंसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तकके जीव व्रतो शुद्धचिद्रूपके ध्यानी होते हैं, इसलिए शुद्धचिद्रूपके प्रेमी और व्रती मनुष्य बहुत ही थोडे हैं ।। २०-२१ ।।
दृश्यंते गन्धनादावनुजसुतसुताभीरुपित्रंबिकासु ग्रामे गेहे खभोगे नगनगरखगे वाहने राजकार्ये । आहार्येऽगे वनादौ व्यसनकृषिमुखेकूपवापीतडागे रक्ताश्वप्रेषणादौ यशसि पशुगणे शुद्धचिद्रूपके न ॥ २२ ॥
अर्थः- इस संसार में कोई मनुष्य तो इत्र, फुलेल आदि सुगंधित पदार्थोंमें अनुरक्त हैं और बहुतसे छोटा भाई, पुत्र, पुत्री, स्त्री, पिता, माता, गांव, घर, इन्द्रियोंके भोग, पर्वत, नगर, पक्षी, सवारी, राजकार्य, खाने योग्य पदार्थ, शरीर, वन, व्यसन, खेती, कुंआ, वावड़ी और तालाबोंमें प्रेम करनेवाले हैं और बहुतसे अन्य मनुष्योंके इधर उधर भेजने में, यश और पशु गणोंकी रक्षा करने में अनुराग करनेवाले हैं; परन्तु शुद्धचिद्रूपके अनुरागी कोई भी मनुष्य नहीं हैं ।
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