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आठवाँ अध्याय शुद्धचिद्रपके ध्यानार्थ अहंकार-ममकारताके त्यागका उपदेश
निरंतरमहंकारं मूढाः कुवंति तेन ते ।
स्वकीयं शुद्धचिद्रपं विलोकंते न निर्मलं ॥ १ ॥
अर्थः --मूढ पुरुष निरंतर अहंकारके वश रहते हैं-अपने से बढ़कर किसीको भी नहीं समझते, इसलिये अतिशय निर्मल अपने शुद्धचिद्रूपकी ओर वे जरा भी नहीं देख पाते ।
भावार्थः - अहंकार, शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिका बाधक है । अहंकारी मनुष्य रूप आदिके मदमें ही उन्मत्त रहते हैं । शुद्धचिद्रूपकी ओर झांककर भी नहीं देखने पाते, इसलिये जो महानुभाव शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके अभिलाषी हैं उन्हें चाहिये कि वे अहंकारका सर्वथा परित्याग कर दें ।। १ ।।
देहोऽहं कर्मरूपोऽहं मनुष्योऽहं कृशोऽकृशः । गौरोऽहं श्यामवर्णोऽहमद्विऽजोहं द्विजोऽथवा ॥ २ ॥ अविद्वानप्यहं विद्वान् निर्धनो धनवानहं । इत्यादि चिंतनं पुंसामहंकारो निरुच्यते ॥ ३॥ युग्मं ।।
अर्थः-मैं देहस्वरूप हूँ, कर्मस्वरूप हूँ, मनुष्य हूँ, कृश हूँ, स्थूल हूँ, गोरा हूँ, काला हूँ, ब्राह्मणसे भिन्न क्षत्रिय, वैश्य आदि हूँ, ब्राह्मण हूँ, मूर्ख हूँ, विद्वान हूँ, निर्धन हूँ और धनवान हूँ, इत्यादिरूपसे मनमें विचार करना अहंकार है । मूढ़ मनुष्य इसी अहंकारमें चूर रहते हैं ।। २-३ ।।
ये नरा निरहंकारं वितन्वंति प्रतिक्षणं । अद्वैतं ते स्वचिद्रूपं प्राप्नुवंति न संशयः ॥ ४ ॥
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